Ek Nazar

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Tuesday, March 15, 2011

हिंदुस्तान की पहली बोलती फिल्म के 80 बरस


सन् 1987 में कमल हासन की एक फिल्म आई थी 'पुष्पक"। फिल्म में कोई संवाद नहीं था अलबत्ता आस-पास हो रही घटनाओं की आवाजें जरुर फिल्म में थी। जरा सोचिए कि आज से तकरीबन 80 साल पहले जो फिल्में बनतीं थीं उनमें कोई आवाज नहीं होती थी14 मार्च 1931 का दिन भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक यादगार लम्हा है। मुंबई (उस वक्त बॉम्बे) का मैजेस्टिक सिनेमा हॉल लोगों के लिए एक खास फिल्म लेकर आया था। खास इसलिए थी क्योंकि यह फिल्म बोलती थी। फिल्म थी आलमआरा। न सिर्फ यह फिल्म बोल रही बल्कि गुनगुना भी रही थी। फिल्म और इसका संगीत दोनों को ही व्यापक रूप से सफलता प्राप्त हुई, फिल्म का गीत 'दे दे खुदा के नाम पर" जो भारतीय सिनेमा का भी पहला गीत था। इसे अभिनेता वजीर मोहम्मद खान ने गाया था, जिन्होंने फिल्म में एक फकीर का चरित्र निभाया था। इस फिल्म में हालांकि 7 गाने थे जिसे फिरोजशाह एम मिस्त्रू और बी इरानी का योगदान था।
यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि आलम आरा हमारी यादों से ही नहीं इतिहास में भी हमेशा के लिए खो गई। इस फिल्म का कोई प्रिंट नेशनल आर्काइव में मौजूद नहीं है। पुणे नेशनल फिल्म आर्काइव में रखा आखिरी प्रिंट 2003 में एक आग हादसे की भेंट चढ़ गया।

आलमआरा फिल्म है। इस फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी हैं। ईरानी ने सिनेमा में आवाज के महत्व को समझते हुये, आलमआरा को और कई समकालीन सवाक फिल्मों से पहले पूरा किया। इस फिल्म की कहानी एक राजकुमार और एक बंजारन लड़की की प्रेम कहानी पर आधारित थी इसमें मास्टर विथल, जुबैदा, एलवी प्रसाद और पृथ्वीराज कपूर ने अभिनय किया था।
मजेदार बात यह है कि फिल्म के ज्यादातर दृश्य रात में फिल्माए गए थे, ताकि दिन में होने वाले शोर से बचा सके। शूटिंग के समय माइक अभिनेताओं के पास छिपा दिए जाते थे। कुछ ऐसे ही जतन करके आलम आरा को परदे तक लाया गया था। जिन लोगों ने मराठी फिल्म 'राजा हरिशचंद्रजी फैक्ट्री" देखी है वे समझ सकते है कि उस समय फिल्म बनाने में लोगों को कितनी तकलीफ होती थी। दादा साहेब ने लंदन जाकर इस तकनीक को सीखा, बीवी के गहने गिरवी रखे, बर्तन बेच दिए, लोगों के ताने सहे।

आज 80 साल बाद हम जहां खड़े वहां से पीछे देखने का वक्त किसी पास नहीं है और न किसी के पास इसके लिए फुर्सत की हमारा वर्तमान किस नींव पर खड़ा है। आज की इस बुलंद इमारत की नींव डालने में लोगों का कितना श्रम है। ये हमारी बदकिस्मती ही है कि आलमआरा फिल्म आज हम नहीं देख सकते।



Saturday, December 18, 2010

धीरे-धीरे.... ये रही प्रेमी की गाई लोरी

हिंदी फिल्मों में हर इक मौके में गाने रखे जा सकते है। शादी के गीत, सगाई के गीत, प्यार के गीत, बिछुड़ने के गीत, मस्तीभरे गीत और देशभक्ति के गीत। इसके अलावा भक्ति गीत, पिकनीक, बर्थडे, डांडिया, भांगड़ा, लावणी और जितनी सिचुएशन आप सोच सकते है उतने गीत। फिल्मों में लोरियों का भी अहम स्थान है।
ज्यादातर लोरियां मां ही गातीं हैं। कहीं-कहीं पिता को भी गाते दिखाया गया है। ब्रह्मचारी में शम्मी कपूर 'अंकल" वाली लोरी गाते हैं। लेकिन फिल्मों में प्रेमी को लोरी गाते दिखाया गया है। बात भले ही चौंकाने वाली लगे पर यह सौ फीसदी सच है। आप की राय थोड़ी अलग हो सकती है। ऐसी सिचुएशन दो बार फिल्मों में दिखाई गई है जहां प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए लोरी गा रहा है, यह बात अलग 'लोरी" के अंत में प्रेमिका की नींद भंग हो जाती है। वाह क्या सीन है। चलिए ज्यादा पहेलियां न बुझाते हुए आपको बता ही देते हैं।
1943 में बॉम्बे टॉकिज ने एक फिल्म बनाई थी 'किस्मत"। फिल्म के मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार, मुमताज शांति, शाह नवाज। इस फिल्म को हिंदुस्तान ने सबसे बड़ी हिट फिल्म माना जाता है। उस समय इस फिल्म ने कई रेकॉर्ड बनाए थे। कलकत्ता (अब कोलकाता) में यह फिल्म लगातार तीन साल तक चली थी और इसने उस समय इस फिल्म ने एक करोड़ रुपए की कमाई की थी। फिल्म में संगीत अनिल बिस्वास का था और गीत लिखे थे कवि प्रदीपजी ने। आपको इस फिल्म का सदाबहार गाना 'दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है" तो याद ही होगा। इसके अलावा एक गीत और जो आज भी पुराने फिल्मों के रसिकों की जुबां पर हमेशा रहता है। वह है 'धीरे-धीरे आ रे बादल धीरे आ, मेरा बुलबुल सो रहा है शोर गुल न मचा।" अशोक कुमार और आमीरबाई कर्नाटकी की आवाज में यह गीत बड़ा ही सुखद लगता है। नायिक सो रही है और नायक गरजते बादलों ने कह रहा है धीरे-धीरे आ रे बादल.... मेरा बुलबुल सो रहा है शोर गुल न मचा। यह एक लोरीनुमा गीत है जो नायक गा रहा है। आज की फिल्मों में न तो ऐसी सिचुएशन पैदा की जा सकती है और न ही ऐसा गीत बन सकता है। शांत, मधुर एकदम कलकल बहते झरने की तरह।

दूसरा गीत है फिल्म ब्वॉय फ्रेंड का। 1961 में बनी इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे शम्मी कपूर और मधुबाला। गीत हसरत जयपुरी के और संगीत शंकर जयकिशन का। यूं तो फिल्म के सारे गानों को शोहरत मिली। जैसे रफी साहब का गाया मुझे अपणा यार बना लो (तीन वर्जन)। सलाम आपकी मीठी नजर को सलाम। लेकिन फिल्म का सबसे ज्यादा हिट गाना था'धीरे चल धीरे चल ऐ.. भीगी हवा, मेरे बुलबुल की है नींद जवा।" इस लोरीनुमा गीत की सिचुएशन भी पहले जैसी ही है लेकिन इसमें नायिका गाती तो नहीं है पर चुपचाप नायक का गाना सुनकर मंद मंद मुस्कुराती रहती है। रफी साहब की आवाज में यह गीत और नीखर जाता है। शम्मी कपूर की अदाकारी और मधुबाला की अदा..... क्या ऐसे संयोजन की आज कल्पना की जा सकती है।