Ek Nazar

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Wednesday, October 13, 2010

'खंडवे वाले किशोर का सबको राम-राम"

किशोर दा जैसी शख्सियत हमारी फिल्मी दुनिया में दोबारा होना नामुमकिन है। वे जितने अच्छे गायक थे उतने ही अभिनेता, कमेडियन और संगीतकार भी। पुरानी पीढ़ी के साथ नई पीढ़ी भी उनके गीतों की दीवानी है। तभी उनका हर इक गीत आज भी दिल के करीब लगता है। अटपटी बातों के लिए मशहूर किशोर दा अक्सर अपना नाम उल्टा बताते थे यानि रशोकि रमाकु। इक बार इंदौर में लता मंगेशकर अवार्ड के लिए उन्हें इंदौर बुलाया गया। तो उन्होंने आयोजकों के ख्वाहिश रखी वे एयरपोर्ट से स्टेडियम तक बैलगाड़ी से जाना चाहते हैं। सुरक्षा कारण उनकी यह मुराद पुरी नहीं हो सकी।
बचपन में रेडियो पर गाना सुनकर उन्होंने गायकी में महारत हासिल कर ली थी। वे अक्सर बाथरूम में जोर जोर से गाया करते थे। जैसे रफी साहब शम्मी कपूर की आवाज बन गए थे वैसे ही किशोर दा राजेश खन्नाा की। राजेश खन्नाा, किशोर कुमार और आरडी बर्मन का ऐसा जादू चला कि राजेश खन्नाा सुपर सितारा बन गए। वे हर स्टेजशो से पहले कहते थे 'खंडवे वाले किशोर का सबको राम-राम"।
किशोर दा अक्सर कहा करते थे कि 'दूध-जलेबी खाएंगे और खंडवा में बस जाएंगे।" यही कहते-कहते 13 अक्टूबर 1987 को वे इस दुनिया को छोड़ कर हमेशा-हमेशा के लिए चले गए।
आज उनकी याद में मैंने यूट्यूब से नॉन फिल्मी गाना उड़ाया उसे ही सुनवा रहा हूं।

Tuesday, October 12, 2010

मध्यमवर्गीय जीवन की सुंदर कविता



नईदुनिया से साभार
मूल लेखक दीपक असीम


'दो दूनी चार" जब खत्म होती है, तो जी चाहता है खड़े होकर तालियाँ बजाई जाएँ। फिल्म का अंत जरा-सा फिल्मी हो गया है, वरना हबीब फैसल ने फिल्म को ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी जैसी संवेदनशीलता और सादगी से चलाया है। इस फिल्म के आर्ट डायरेक्टर को यदि कोई पुरस्कार नहीं मिला तो बहुत नाइंसाफी होगी। मध्यमवर्गीय आदमी के घर का सेट ऐसा तैयार किया है कि दर्शकों को हर चीज अपनी-सी लगती है। वो रंग उड़ा-सा फ्रिज, वो बहुत सारे स्टीकरों से बदरंग लोहे की अलमारी, वो सँकरा-सा किचन, वो गंदा-सा वाशिंग एरिया, वो गली, वो पड़ोसी...। वाकई ये मध्यमवर्गीय जिंदगी की कविता है। ऐसी कविता जिसमें हँसी भी है, उदासी भी।
ऋषि कपूर इतने अच्छे एक्टर हैं, ये पहले इसलिए पता नहीं चल पाया था क्योंकि वे अधिकतर प्रेमी के रोल ही में आए थे। पहली बार उन्होंने कुछ हटकर किया है और ऐसा किया है कि यदि उन्हें इस फिल्म में अभिनय के लिए अवॉर्ड नहीं मिला, तो ये भी नाइंसाफी होगी। साथ ही कास्टिंग डायरेक्टर भी इनाम का हकदार है कि उसने बच्चों का रोल करने के लिए दो ऐसे किशोरों को छाँटा है, जिनसे बेहतर शायद कोई और नहीं हो सकते थे। तेजतर्रार महत्वाकांक्षी लड़की पायल का रोल अदिति वासुदेव ने और ऐशपसंद लड़के सेंडी का रोल अर्चित कृष्णा ने गजब किया है। फिल्म बहुत सारी प्रतिभाओं के जोड़ से बनती है, सो ड्रेस डिजाइनर को भी नहीं भूला जा सकता और गीतकार को भी। 'माँगे की घोड़ी" वाला गीत तो गुलज़ार की सहजता की याद दिलाता है।



अक्सर यह होता है कि हम पर्दे के पीछे के लोगों को याद नहीं करते, मगर इस फिल्म में पर्दे के पीछे रहने वालों ने ऐसा ठोस काम किया है कि जी चाहता है, नेट से नाम-पता ढूँढकर उन्हें बधाई भेजी जाए। सबकुछ इतना विश्वसनीय बना दिया गया है कि हर कलाकार का अभिनय खिल-खिल उठा है। कहानी भी बहुत अच्छी है, पर उसका जिक्र इसलिए नहीं किया कि पहले आप फिल्म देख लें, फिर उसके बारे में भी बात करेंगे। फिल्म की कहानी एक अलग ही तरह की विचारोत्तेजना पैदा करती है। फिल्म 'दबंग" के बाद यदि कोई देखने लायक फिल्म आई है, तो यही। अगर इसे न देखा गया, तो ये न सिर्फ अच्छा काम करने वालों के साथ नाइंसाफी होगी, बल्कि अपने-आपके साथ भी होगी। इसे सच्चे अर्थों में पारिवारिक फिल्म कहा जा सकता है। पारिवारिक फिल्मों के नाम पर अब सत्रह सदस्यों वाला परिवार पेश नहीं किया जा सकता, जिसमें सास-बहू के झगड़े चल रहे हों। संयुक्त परिवार अब कहाँ हैं? अब तो न्यूक्लियर फैमिलीज हैं, छोटे परिवार हैं। इसीलिए ये भी पारिवारिक फिल्म है।