Ek Nazar

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Tuesday, October 12, 2010

मध्यमवर्गीय जीवन की सुंदर कविता



नईदुनिया से साभार
मूल लेखक दीपक असीम


'दो दूनी चार" जब खत्म होती है, तो जी चाहता है खड़े होकर तालियाँ बजाई जाएँ। फिल्म का अंत जरा-सा फिल्मी हो गया है, वरना हबीब फैसल ने फिल्म को ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी जैसी संवेदनशीलता और सादगी से चलाया है। इस फिल्म के आर्ट डायरेक्टर को यदि कोई पुरस्कार नहीं मिला तो बहुत नाइंसाफी होगी। मध्यमवर्गीय आदमी के घर का सेट ऐसा तैयार किया है कि दर्शकों को हर चीज अपनी-सी लगती है। वो रंग उड़ा-सा फ्रिज, वो बहुत सारे स्टीकरों से बदरंग लोहे की अलमारी, वो सँकरा-सा किचन, वो गंदा-सा वाशिंग एरिया, वो गली, वो पड़ोसी...। वाकई ये मध्यमवर्गीय जिंदगी की कविता है। ऐसी कविता जिसमें हँसी भी है, उदासी भी।
ऋषि कपूर इतने अच्छे एक्टर हैं, ये पहले इसलिए पता नहीं चल पाया था क्योंकि वे अधिकतर प्रेमी के रोल ही में आए थे। पहली बार उन्होंने कुछ हटकर किया है और ऐसा किया है कि यदि उन्हें इस फिल्म में अभिनय के लिए अवॉर्ड नहीं मिला, तो ये भी नाइंसाफी होगी। साथ ही कास्टिंग डायरेक्टर भी इनाम का हकदार है कि उसने बच्चों का रोल करने के लिए दो ऐसे किशोरों को छाँटा है, जिनसे बेहतर शायद कोई और नहीं हो सकते थे। तेजतर्रार महत्वाकांक्षी लड़की पायल का रोल अदिति वासुदेव ने और ऐशपसंद लड़के सेंडी का रोल अर्चित कृष्णा ने गजब किया है। फिल्म बहुत सारी प्रतिभाओं के जोड़ से बनती है, सो ड्रेस डिजाइनर को भी नहीं भूला जा सकता और गीतकार को भी। 'माँगे की घोड़ी" वाला गीत तो गुलज़ार की सहजता की याद दिलाता है।



अक्सर यह होता है कि हम पर्दे के पीछे के लोगों को याद नहीं करते, मगर इस फिल्म में पर्दे के पीछे रहने वालों ने ऐसा ठोस काम किया है कि जी चाहता है, नेट से नाम-पता ढूँढकर उन्हें बधाई भेजी जाए। सबकुछ इतना विश्वसनीय बना दिया गया है कि हर कलाकार का अभिनय खिल-खिल उठा है। कहानी भी बहुत अच्छी है, पर उसका जिक्र इसलिए नहीं किया कि पहले आप फिल्म देख लें, फिर उसके बारे में भी बात करेंगे। फिल्म की कहानी एक अलग ही तरह की विचारोत्तेजना पैदा करती है। फिल्म 'दबंग" के बाद यदि कोई देखने लायक फिल्म आई है, तो यही। अगर इसे न देखा गया, तो ये न सिर्फ अच्छा काम करने वालों के साथ नाइंसाफी होगी, बल्कि अपने-आपके साथ भी होगी। इसे सच्चे अर्थों में पारिवारिक फिल्म कहा जा सकता है। पारिवारिक फिल्मों के नाम पर अब सत्रह सदस्यों वाला परिवार पेश नहीं किया जा सकता, जिसमें सास-बहू के झगड़े चल रहे हों। संयुक्त परिवार अब कहाँ हैं? अब तो न्यूक्लियर फैमिलीज हैं, छोटे परिवार हैं। इसीलिए ये भी पारिवारिक फिल्म है।

1 comment:

  1. Aapki mimansaa ne film dekhne kee jigyasa jagrut kee hai!

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