Ek Nazar

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Friday, July 31, 2009

मुझको मेरे बाद जमाना ढूंढेगा


रफी साहब को सुनों तो ऐसा लगता है कि सुनते ही जाओ। मैंने उनका सबसे पहला गाना तब सुना था जब मैं तीसरी क्लास में पढ़ता था। स्कूल में कोई कार्यक्रम था जिसके लिए `चुन-चुन करती आई चिड़िया´ (िफल्म अब दिल्ली दूर नहीं) गाने पर डांस करना था। किसी कारण से यह प्रोग्राम तो नहीं हो पाया लेकिन मुझे यह गीत बहुत पंसद आया। इसके बाद कई बार रेडियो पर यह गाना मैंने सुना। गाना पूरा होते उद्घोषक गायक का नाम मो. रफ़ी कहता था। उस वक्त मुझे मो. रफी के बारे में कुछ नहीं पता था। इसके बाद टीवी पर पहली बार कश्मीर की कली का गीत `किसी ना किसी से कहीं ना कही´ सुना। गीत शुरूआती सीन में एक ढलान पर उनकी कार लुढकने लगती है, और गीत शुरू हो जाता है। वह मेरे लिए बड़ा मजेदार था क्योंकि उन दिनों मैं साइकिल चलाना सीख रहा था और घर के पास मौजूद पुलिया पर साइकिल का लुलढ़ना और मेरा इसी गीत को गुनगुना। मेरे डैडी भी रफी साहब के गानों के दीवाने हैं। मुझे याद है बचपन में वे अक्सर टेप रिकॉर्डर पर रफी साहब के गाने सुनते और मैं भी। यह क्रम आज भी जारी है फर्क इतना है कि टेप रिकॉर्डर की जगह सीडी प्लेअर और कंप्यूटर ने ले ली।रफी साहब जैसा दूसरा कोई नहीं। अपनी रेंज, हर कलाकार पर िफट बैठने वाली भावपूर्ण खुली लोचदार आवाज, अभिनेता की शैली के अनुरूप गायकी को ढाल लेने, उसमें अभिनय को समाहित करने, सुर को बड़ी सहजता के साथ आसमान की ऊंचाई और अतल गहराई तक ले जाने और मध्यम सुर में भी उसी खूबी से गायन की क्षमता से मोहम्मद रफी ने जो मुकाम हासिल किया था, दूसरे गायक आज तक उसके आसपास भी नहीं पहुंच पाए हैं। बचपन में रफ़ी, कुंदन लाल सहगल के मुरीद थे और गाने गाया करते थे। उनके भाई हामिद मियां उनके इस फन को पहचाना और रफी एक फनकार के रूप में दुनिया के सामने आया। उन्हें पहली बार मंच पर गाने का मौका सहगल के ही कार्यक्रम में मिला। दरअसल हुआ यूं कि लाहौर में सहगल का कार्यक्रम था और इसे सुनने के लिए तेरह साल के रफी अपने भाई हामिद के साथ उस कार्यक्रम में गए थे। सहगल गाना शुरू करने वाले ही थे कि अचानक बिजली चली गई और उन्होंने गाने से मना कर दिया। ऐसी स्थिति में हामिद ने कार्यक्रम के संचालक से अनुरोध किया कि दर्शकों को शांत रखने के लिए उनके भाई को गाने का मौका दिया जाए। रफी के गाना शुरू करते ही दर्शक शांत हो गए। उसी कार्यक्रम में संगीतकार श्यामसुंदर भी मौजूद थे, जिन्होंने रफी की आवाज से प्रभावित होकर उन्हें मुम्बई (तत्कालीन बम्बई) आने का न्योता दिया। रफी ने श्याम सुंदर के संगीत निर्देशन में पहली बार 1942 में पंजाबी िफल्म `गुल बलोच´ के लिए गायिका जीनत बेगम के साथ युगल गीत `सोनिए नी हीरीए नी´ गाया। रफी की आवाज से श्याम सुंदर इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी िफल्म `बाजार´ में उनसे सात गाने गवाए। लेकिन उन्हें उतनी पहचान नहीं मिली। उनका संघर्ष जारी रहा। नौशाद के संगीत निर्देशन में एक सह-गायन के बाद उन्हें पहली बार `सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम आओगी´ गवाया। यह गीत इतना लोकप्रिय हुआ रफी राताें-रात स्टार बन गए। िफर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। नौशाद और गीतकार शकील बंदायूनी के साथ शुरू हुआ उनका संगीत का यह सफर काफी लंबा चला और इस तिकड़ी ने एक से बढकर एक लाजवाब गीतों के खजाने से िफल्म संगीत को समृद्ध बनाने में अमूल्य योगदान किया। बैजू बावरा रफी के कैरियर में कीर्तिस्तम्भ मानी जाएगी । इस िफल्म में नौशाद के संगीत निर्देशन में रफी की गायकी का चरमोत्कर्ष देखने को मिलता है। वास्तव में यही वह िफल्म थी जिससे रफी ने साबित किया कि वह हर तरह के गीत गाने की क्षमता रखते हैं। इस िफल्म का हर गीत अविस्मरणीय है मन तड़पत हरि दर्शन को आज, झूले में पवन के आई बहार, इंसान बनो कर लो भलाई का कोइ oकाम, तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा, ओ दुनिया के रखवाले सुनदर्द भरे मेरे नाले, बैजू बावरा की जबरदस्त कामयाबी के बाद रफी हर संगीतकार कीपहली पसंद बन गए। हुस्नलाल, भगतराम, रोशन, सी. रामचंद्र, ख©याम, हंसराज बहल, एन दत्ता, जयदेव, चित्रगुप्त, वसंत देसाई, हेमन्त कुमार, ओपी. नैयर, कल्याण जी आनन्द जी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, रवि, इकबाल कुरैशी, एसडी. बर्मन, आरडी. बर्मन, उषा खन्ना, संगीतकारों के लिए उन्होंने हजारों सुमधुर गीत गाए। मदन मोहन, ओपी नैयर, रवि और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल तो उनके बगैर गायन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। ओ पी नैयर ने तो यहाँ तक कह दिया था कि यदि रफी नहीं होते तो ओपी नैयर भी नहीं होता। और तो और उन्होंने किशोर कुमार के लिए भी पाश्र्व गायन किया, यानि परदे पर किशोर दा और आवाज रफी साहब की। मो. रफी निजी जिन्दगी में बेहद कम बोलने वाले, विनम्र और विवादों से दूर रहने वाले व्यक्ति थे। उनकी जिन्दगी में सिर्फ एक बार ऐसा मौका आया था जब वह विवादों में पड़ने से खुद को नहीं बचा पाए थे। गायकों को रायल्टी के मुद्दे पर उनकी लताजी के साथ तकरार हो गई थी, जिसकी वजह से दोनों के बीच लगभग चार साल तक बातचीत बंद रही। इस दौरान सुमन कल्याणपुर और रफी की जोड़ी ने इंडस्ट्री में धूम मचाई बाद में अभिनेत्री नLगस के समझाने, बुझाने से दोनों ने एक कार्यक्रम में शिरकत करते हुए ज्वेल थीफ का गाना `दिल पुकारे आ रे आरे आरे´ गीत गाकर संबंधों पर जमी बर्फ को तोड़ा था। एक बार ठोकर िफल्म के गीत `अपनी आंखों में बिठाकर कोई इकरार करूं´ गीत के लिए संगीतकार श्यामजी-घनश्याम से उन्होंने मात्र एक रुपये पारिश्रमिक लिया था क्योंकि इस संगीतकार जोड़ी ने रफी साहब से गवाने के लिए अपनी पत्नी के जेवर गिरवी रख दिए थे। रफी की कैरियर में एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें किशोर दा से कड़ी चुनौति मिली। आराधना में गाये गीतों का ऐसा तूफान आया कि रफी साहब का सितारा गिर्दश में चला गया। लेकिन उन्होंने जल्द ही हम किसी से कम नहीं िफल्म से वापसी की और क्या हुआ तेरा वादा से गाने से िफर छा गये। इस गीत के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। चार दशक से भी लंबे गायन के कैरियर में रफी के उत्कृष्ट योगदान को देखते हुए उन्हें 1965 में प«श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें गीतों के लिए छह बार सर्वश्रेष्ठ पाश्र्व गायक का िफल्म फेयर पुरस्कार भी मिला। चौदहवीं का चांद हो, तेरी प्यारी प्यारी सूरत को, चाहूंगा मैं तुझे सांझ सबेरे, बहारों फूल बरसाओ, दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर और हम किसी से कम नहीं में क्या हुआ तेरा वादा केलिए उन्हें पुरस्कार हासिल हुए। हालांकि रफी के करोड़ों प्रशंसकों को इस बात की गिला है किअपनी आवाज की जादूगरी से दुनिया का दिल जीतने वाले निLववादरूप से सर्वश्रेष्ठ इस गायक को भारत रत्न के काबिल क्यों नहीं समझा गया। गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉड्र्स में उनके नाम से 26,000 गीतों का रिकार्ड दर्ज़ था, लेकिन बाद में इसे हटा लिया गया।

मैं चलूं

रफी साहब ने आखिरी गीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए िफल्म आस-पास में गाया। गीत के बोल हैं `तू कहीं आस-पास है ऐ दोस्त´। गीत रिकॉर्ड होने के बाद रफी ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से कहा मैं चलूं। रफी साहब के मुंह से ऐसे बोल सुनकर दोनों चौंक गए क्योंकि रफी साहब ने पहले ऐसा कभी नहीं कहा था। और 31 जुलाई 1980 वह मनहूस दिन था जिस दिन रफी अपने चाहने वालों को छोड़कर हमेशा के लिए रुख्सत हो गये और छोड़ गए अपने पीछे वे बेशुमार नगमें जिन्हें आज हम उसी शिद्दत से सुनते हैं।
इनपुट वार्ता