Ek Nazar

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Saturday, December 18, 2010

धीरे-धीरे.... ये रही प्रेमी की गाई लोरी

हिंदी फिल्मों में हर इक मौके में गाने रखे जा सकते है। शादी के गीत, सगाई के गीत, प्यार के गीत, बिछुड़ने के गीत, मस्तीभरे गीत और देशभक्ति के गीत। इसके अलावा भक्ति गीत, पिकनीक, बर्थडे, डांडिया, भांगड़ा, लावणी और जितनी सिचुएशन आप सोच सकते है उतने गीत। फिल्मों में लोरियों का भी अहम स्थान है।
ज्यादातर लोरियां मां ही गातीं हैं। कहीं-कहीं पिता को भी गाते दिखाया गया है। ब्रह्मचारी में शम्मी कपूर 'अंकल" वाली लोरी गाते हैं। लेकिन फिल्मों में प्रेमी को लोरी गाते दिखाया गया है। बात भले ही चौंकाने वाली लगे पर यह सौ फीसदी सच है। आप की राय थोड़ी अलग हो सकती है। ऐसी सिचुएशन दो बार फिल्मों में दिखाई गई है जहां प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए लोरी गा रहा है, यह बात अलग 'लोरी" के अंत में प्रेमिका की नींद भंग हो जाती है। वाह क्या सीन है। चलिए ज्यादा पहेलियां न बुझाते हुए आपको बता ही देते हैं।
1943 में बॉम्बे टॉकिज ने एक फिल्म बनाई थी 'किस्मत"। फिल्म के मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार, मुमताज शांति, शाह नवाज। इस फिल्म को हिंदुस्तान ने सबसे बड़ी हिट फिल्म माना जाता है। उस समय इस फिल्म ने कई रेकॉर्ड बनाए थे। कलकत्ता (अब कोलकाता) में यह फिल्म लगातार तीन साल तक चली थी और इसने उस समय इस फिल्म ने एक करोड़ रुपए की कमाई की थी। फिल्म में संगीत अनिल बिस्वास का था और गीत लिखे थे कवि प्रदीपजी ने। आपको इस फिल्म का सदाबहार गाना 'दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है" तो याद ही होगा। इसके अलावा एक गीत और जो आज भी पुराने फिल्मों के रसिकों की जुबां पर हमेशा रहता है। वह है 'धीरे-धीरे आ रे बादल धीरे आ, मेरा बुलबुल सो रहा है शोर गुल न मचा।" अशोक कुमार और आमीरबाई कर्नाटकी की आवाज में यह गीत बड़ा ही सुखद लगता है। नायिक सो रही है और नायक गरजते बादलों ने कह रहा है धीरे-धीरे आ रे बादल.... मेरा बुलबुल सो रहा है शोर गुल न मचा। यह एक लोरीनुमा गीत है जो नायक गा रहा है। आज की फिल्मों में न तो ऐसी सिचुएशन पैदा की जा सकती है और न ही ऐसा गीत बन सकता है। शांत, मधुर एकदम कलकल बहते झरने की तरह।

दूसरा गीत है फिल्म ब्वॉय फ्रेंड का। 1961 में बनी इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे शम्मी कपूर और मधुबाला। गीत हसरत जयपुरी के और संगीत शंकर जयकिशन का। यूं तो फिल्म के सारे गानों को शोहरत मिली। जैसे रफी साहब का गाया मुझे अपणा यार बना लो (तीन वर्जन)। सलाम आपकी मीठी नजर को सलाम। लेकिन फिल्म का सबसे ज्यादा हिट गाना था'धीरे चल धीरे चल ऐ.. भीगी हवा, मेरे बुलबुल की है नींद जवा।" इस लोरीनुमा गीत की सिचुएशन भी पहले जैसी ही है लेकिन इसमें नायिका गाती तो नहीं है पर चुपचाप नायक का गाना सुनकर मंद मंद मुस्कुराती रहती है। रफी साहब की आवाज में यह गीत और नीखर जाता है। शम्मी कपूर की अदाकारी और मधुबाला की अदा..... क्या ऐसे संयोजन की आज कल्पना की जा सकती है।

Tuesday, October 26, 2010

फिल्मी गीतों के दर्पण में करवा चौथ का सुंदर रूप

फिल्मी गीतों के दर्पण में सुहाग के प्रति प्रेम एवं समर्पण के प्रतीक करवा चौथ पर्व का सुंदर रूप जब-तब दिखाई देता रहता है । कई फिल्मकारों ने करवा चौथ के गीतों के जरिए नायक, नायिका की प्रेमाभिव्यक्ति को रपहले परदे पर उतारा है। करवा चौथ के सामयिक गीतों की विशेषता यह रही है कि इनका फिल्मांकन बेहद प्रभावी ढंग से किया गया है। कई नई पुरानी फिल्मों में शामिल ये गीत काफी हिट रहे हैं। करवा चौथ के ज्यादातर गीतों में पति-पत्नी के किरदारों को अभिनीत करते नायक, नायिका अपनी मोहब्बत का इजहार करते हुए एक-दूसरे की हमेशा सलामती की दुआ मांगते नजर आते हैं जबकि कुछ गीतों में विरह की व्याकुलता को दर्शाया गया है।
कुछेक पुरानी फिल्मों में करवा चौथ के गीतों को बेहद सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ऐसी प्रस्तुति आज भी कुछ फिल्म निर्माता यदा-कदा अपनी फिल्मों में दे रहे हैं। साठ-सत्तर के दशक के बीच एक फिल्म 'सुहागरात" आई थी, जिसमें एक गीत 'गंगा मैया में जब तक कि पानी रहे. मेरे सजना तेरी जिंदगानी रहे" में करवा चौथ की महत्ता को प्रदर्शित कियागया था। 'सुहागरात" को ही घर छोड़कर कहीं चले गए पति के प्रति पत्नी का विश्वास एवं समर्पण भाव और भारतीय नारी की एकनिष्ठता की छवि इस गीत में नजर आती है। भारतीय समाज में पारम्परिक विवाह के साथ ही गंधर्व विवाह भीअपना एक अलग वजूद रखता है। दक्षिण भारत की हिन्दी फिल्म के रीमेक 'मांग भरो सजना" ऐसे ही विषय से प्रेरित थी। फिल्म के नायक का नायिका से पारम्परिक विवाह होता है जबकि उसका पहले ही किसी अन्य महिला से परिस्थितिजन्य गंधर्व विवाह हो चुका रहता है। एक पति के प्रति दोनों पत्नियों का एक जैसा प्रेम एवं समर्पण करवाचौथ के इस गीत 'दीपक मेरे सुहाग का जलता रहे, कभी चांद, कभी सूरज बनके निकलता रहे" में दिखाई देता है। अपने समय का यहसुपरहिट गीत आज भी करवा चौथ के मौके पर सुनाई दे जाता है।
हिन्दू सामाजिक मान्यता के अनुसार करवा चौथ का व्रत पति या भावी पति के लिए रखा जाता है। आदित्य चोपड़ा की फिल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे" नायिका भावी पति के बजाय अपने प्रेमी की छवि दिल में संजोए रखती है और करवा चौथ का व्रत भी वह भावी पति के बजाय प्रेमी का चेहरा देखकर ही तोड़ती है। नए निर्माता-निर्देशकों ने भी अपनी पारिवारिक फिल्मों के गीतों में करवा चौथ को सामयिक संदर्भों में स्थान दिया है। चाहे वह करन जौहर की 'कभी खुशी कभी गम" हो या फिर संजय लीला भंसाली की 'हम दिल दे चुके सनम हो" इन फिल्मों में करवा चौथ के दौरान पुरानी पीढ़ी के किरदारों के साथ ही नई पीढी की नायिकाएं अपने नायक के प्रेम की अठखेलियां करती नजर आती हैं। 'हम दिल दे चुके सनम" में करवा चौथ के चांद को इंगित करके नायक 'चांद छुपा बादल में शरमा के मेरी जानां सीने से लग जाना तू" गीत में नायिका से अपनी मोहब्बत का इजहार करता है।

आम धारणा है कि पत्नी अपने पति के लिए करवा चौथ का व्रतरखती है लेकिन बदलते दौर में बहुत से पति भी इस दिन उपवास रखकर पत्नी का साथ देते हैं। निर्माता-निर्देशक रवि चोपडा की फिल्म 'बागबां" में केंद्रीय किरदार अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी करवा चौथ का व्रत रखते हैं। इस मौके पर परिस्थितिजन्य दोनों अलग-अलग रहते हैं लेकिन टेलीफोन पर वार्तालाप के जरिए अपनीविरह वेदना व्यक्त करते हैं। इस फिल्म ने ऐसी छाप छोड़ी है कि निजी जीवन में भी बहुत से पति करवा चौथ का व्रत रखने लगे हैं।

Wednesday, October 13, 2010

'खंडवे वाले किशोर का सबको राम-राम"

किशोर दा जैसी शख्सियत हमारी फिल्मी दुनिया में दोबारा होना नामुमकिन है। वे जितने अच्छे गायक थे उतने ही अभिनेता, कमेडियन और संगीतकार भी। पुरानी पीढ़ी के साथ नई पीढ़ी भी उनके गीतों की दीवानी है। तभी उनका हर इक गीत आज भी दिल के करीब लगता है। अटपटी बातों के लिए मशहूर किशोर दा अक्सर अपना नाम उल्टा बताते थे यानि रशोकि रमाकु। इक बार इंदौर में लता मंगेशकर अवार्ड के लिए उन्हें इंदौर बुलाया गया। तो उन्होंने आयोजकों के ख्वाहिश रखी वे एयरपोर्ट से स्टेडियम तक बैलगाड़ी से जाना चाहते हैं। सुरक्षा कारण उनकी यह मुराद पुरी नहीं हो सकी।
बचपन में रेडियो पर गाना सुनकर उन्होंने गायकी में महारत हासिल कर ली थी। वे अक्सर बाथरूम में जोर जोर से गाया करते थे। जैसे रफी साहब शम्मी कपूर की आवाज बन गए थे वैसे ही किशोर दा राजेश खन्नाा की। राजेश खन्नाा, किशोर कुमार और आरडी बर्मन का ऐसा जादू चला कि राजेश खन्नाा सुपर सितारा बन गए। वे हर स्टेजशो से पहले कहते थे 'खंडवे वाले किशोर का सबको राम-राम"।
किशोर दा अक्सर कहा करते थे कि 'दूध-जलेबी खाएंगे और खंडवा में बस जाएंगे।" यही कहते-कहते 13 अक्टूबर 1987 को वे इस दुनिया को छोड़ कर हमेशा-हमेशा के लिए चले गए।
आज उनकी याद में मैंने यूट्यूब से नॉन फिल्मी गाना उड़ाया उसे ही सुनवा रहा हूं।

Tuesday, October 12, 2010

मध्यमवर्गीय जीवन की सुंदर कविता



नईदुनिया से साभार
मूल लेखक दीपक असीम


'दो दूनी चार" जब खत्म होती है, तो जी चाहता है खड़े होकर तालियाँ बजाई जाएँ। फिल्म का अंत जरा-सा फिल्मी हो गया है, वरना हबीब फैसल ने फिल्म को ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी जैसी संवेदनशीलता और सादगी से चलाया है। इस फिल्म के आर्ट डायरेक्टर को यदि कोई पुरस्कार नहीं मिला तो बहुत नाइंसाफी होगी। मध्यमवर्गीय आदमी के घर का सेट ऐसा तैयार किया है कि दर्शकों को हर चीज अपनी-सी लगती है। वो रंग उड़ा-सा फ्रिज, वो बहुत सारे स्टीकरों से बदरंग लोहे की अलमारी, वो सँकरा-सा किचन, वो गंदा-सा वाशिंग एरिया, वो गली, वो पड़ोसी...। वाकई ये मध्यमवर्गीय जिंदगी की कविता है। ऐसी कविता जिसमें हँसी भी है, उदासी भी।
ऋषि कपूर इतने अच्छे एक्टर हैं, ये पहले इसलिए पता नहीं चल पाया था क्योंकि वे अधिकतर प्रेमी के रोल ही में आए थे। पहली बार उन्होंने कुछ हटकर किया है और ऐसा किया है कि यदि उन्हें इस फिल्म में अभिनय के लिए अवॉर्ड नहीं मिला, तो ये भी नाइंसाफी होगी। साथ ही कास्टिंग डायरेक्टर भी इनाम का हकदार है कि उसने बच्चों का रोल करने के लिए दो ऐसे किशोरों को छाँटा है, जिनसे बेहतर शायद कोई और नहीं हो सकते थे। तेजतर्रार महत्वाकांक्षी लड़की पायल का रोल अदिति वासुदेव ने और ऐशपसंद लड़के सेंडी का रोल अर्चित कृष्णा ने गजब किया है। फिल्म बहुत सारी प्रतिभाओं के जोड़ से बनती है, सो ड्रेस डिजाइनर को भी नहीं भूला जा सकता और गीतकार को भी। 'माँगे की घोड़ी" वाला गीत तो गुलज़ार की सहजता की याद दिलाता है।



अक्सर यह होता है कि हम पर्दे के पीछे के लोगों को याद नहीं करते, मगर इस फिल्म में पर्दे के पीछे रहने वालों ने ऐसा ठोस काम किया है कि जी चाहता है, नेट से नाम-पता ढूँढकर उन्हें बधाई भेजी जाए। सबकुछ इतना विश्वसनीय बना दिया गया है कि हर कलाकार का अभिनय खिल-खिल उठा है। कहानी भी बहुत अच्छी है, पर उसका जिक्र इसलिए नहीं किया कि पहले आप फिल्म देख लें, फिर उसके बारे में भी बात करेंगे। फिल्म की कहानी एक अलग ही तरह की विचारोत्तेजना पैदा करती है। फिल्म 'दबंग" के बाद यदि कोई देखने लायक फिल्म आई है, तो यही। अगर इसे न देखा गया, तो ये न सिर्फ अच्छा काम करने वालों के साथ नाइंसाफी होगी, बल्कि अपने-आपके साथ भी होगी। इसे सच्चे अर्थों में पारिवारिक फिल्म कहा जा सकता है। पारिवारिक फिल्मों के नाम पर अब सत्रह सदस्यों वाला परिवार पेश नहीं किया जा सकता, जिसमें सास-बहू के झगड़े चल रहे हों। संयुक्त परिवार अब कहाँ हैं? अब तो न्यूक्लियर फैमिलीज हैं, छोटे परिवार हैं। इसीलिए ये भी पारिवारिक फिल्म है।

Monday, September 27, 2010

लताजी और मेहंदी हसन एक साथ

लताजी की गायकी के बारे कुछ कहना यानि सूरज को दीपक दिखाने जैसा है। आज लताजी के जन्मदिन है और इस मौके पर एक ऐसी खुशखबरी है जिसे सुनकर हर कोई कह उठेगा कि इसका तो हमें बरसों से इंतजार था। लताजी और मेहंदी की युगल आवाज में एचएमवी अगले माह एक अल्बम लॉन्च करने वाला है।
कई मायनों पर में यह अल्बम खास है क्योंकि इसकी रिकॉर्डिंग दोनों देशों में हुई है। अपने हिस्से के गीत मेहंदी हसन ने पाकिस्तान में गाए और लताजी ने अपने हिस्से के गीत हिंदुस्तान में। आज लताजी के जन्मदिन पर उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं पर नजर डालते हैं।



लताजी ने शुरुआती दिनों में मराठी फिल्मों में काम किया। पहली मंगलागौर उनकी पहली फिल्म थी। इसके अलावा आनंदघन नाम से कुछेक फिल्मों में उन्होंने गीत भी कंपोज किए।

लताजी को साइकिल चलाना बेहद पसंद था। लेकिन वे कभी इसके खरीद नहीं पाईं। उन्होंने पहली कार 8000 रुपयों में खरीदी थीं। आज वे यश चोपड़ा की गिफ्ट की हुई कारण मर्सीडिज में चलतीं हैं।

उन्हें बॉन्ड सीरीज की हॉलीवुड की फिल्में बेहद पसंद हैं। हिंदी फिल्मों में त्रिशूल, मधूमती, दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे, शोले, सीता और गीता, बेहद पसंद है। किस्मत (अशोक कुमार) उन्होंने 50 बार देखी है।

लताजी को घर में केवल केएल सहगल के गीत गाने की इजाजत थी। क्योंकि लताजी के पिता को शााीय संगीत से बेहद प्यार था। एक बार उन्होंने रेडिओ खरीदा और जैसे उसे शुरू किया उस पर खबर आई कि सहगल साहब नहीं रहे। इतना सुनते ही उन्होंने रेडिओ वापस कर दिया।

हेमंत कुमार के साथ गीत गाते समय लताजी को खासी परेशानी होती थी। क्योंकि उस जमाने में गायकों को एक ही माइक्रोफोन से काम चलाना पड़ता था। हेमंत कुमार काफी लंबे थे। इसलिए लताजी को एक स्टूल रख उस पर खड़े होकर गाना गाना पड़ता था।

लताजी को तीखा-मसालेदार खाना बेहद पसंद है। कहा जाता है कि एक बार में वे 10-12 हरी मिर्च खा जाती थीं।

एक बार किशोर कुमार ने उनका मुंबई की लोकल ट्रेन में काफी पीछा किया। और यह सिलसिला रिकॉर्डिंग स्टुडिओ तक चला। उस लताजी और किशोर दा पहला डुएट गाना गाया।

लताजी को आज भी इस बात का मलाल है कि वे सहगलजी के साथ कभी नहीं गा सकीं और दिलीप कुमार को अपनी आवाज नहीं दे सकीं। एक बार लताजी के बारे में दिलीप कुमार ने कहा था कि लता यानि महाराष्ट्रीयन ये उर्दु कैसे गाएगी। इनके बोल से दाल-भात की बू आएगी। उसी दिन से लताजी ने उर्दु की कोचिंग शुरू कर दी।

लताजी रिकॉर्डिंग रुम में जाने से पहले चप्पलें बाहर ही उतार देती हैं। मधुबाला लताजी के इस कदर दीवानी थीं कि वे अपने कॉन्ट्रैक्ट में लिखवाती थीं कि मेरे सारे गाने लता ही गाएंगी।

क्रमश:

Saturday, September 25, 2010

याद किया दिल ने कहां हो तुम

सोचा था हेमंत दा की पोस्टिंग कुछ अलग करुंगा। इसके लिए रॉ मटैरियल भी तगोड़ लिया था। लेकिन वक्त ने इसकी इजाजत नहीं दी। शाम तो दफ्तर आए तो एजेंसी पर मैटर रिलीज हो चुका था। हमने उठाया कांट-छांट की और वैसे ही ठेल दिया। आगे कोशिश करुंगा की अपनी योजना को मूर्त रूप दे सकूं।


हिन्दी और बंगला फिल्मों के महान पार्श्वगायक और संगीतकार हेमंत कुमार के मदहोश करने वाले गीत आज भी फिजां में गूंजते महसूस होते हैं और उनकी स्मृति में श्रोताओं के दिल से यही आवाज निकलती है 'याद किया दिल ने कहाँ हो तुम" हेमंत कुमार मुखोपाध्याय का जन्म 16 जून 1920 को बनारस में हुआ। उनके जन्म के कुछ समय के बाद उनका परिवार कोलकाता चला गया, जहाँ उन्होंने मित्रा इंस्टीटयूट से अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी की । इंटर की परीक्षा उतीर्ण करने के बाद हेमंत कुमार ने जादवपुर यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग में दाखिला ले लिया लेकिन कुछ समय के बाद उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी क्योंकि उस समय तक उनका रूझान संगीत की ओर हो गया था और वह संगीतकार बनना चाहते थे। उन्होंने संगीत की अपनी प्रारंभिक शिक्षा एक बंगला संगीतकार शैलेश दत्त गुप्ता से ली। इसके अलावा उस्ताद फैयाज खान से उन्होंने शााीय संगीत की शिक्षा भी ली।
वर्ष 1937 में शैलेश दत्त गुप्ता के संगीत निर्देशन में एक विदेशी संगीत कंपनी कोलंबिया लेबल के लिए हेमंत कुमार ने गैर फिल्मी गीत गाए । इसके बाद उन्होंने लगभग हर वर्ष ग्रामोफोनिक कंपनी ऑफ इंडिया के लिए अपनी आवाज दी। वर्ष 1940 में ग्रामोफोनिक कंपनी के लिए ही कमल दास गुप्ता के संगीत निर्देशन में हेमंत कुमार को अपना पहला हिन्दी गाना 'कितना दुख भुलाया तुमने" गाने का मौका मिला, जो एक गैर फिल्मी गीत था।

कुछ समय के बाद वे अपने मित्र हेमेन गुप्ता के साथ मुंबई आ गए। वर्ष 1951 मंे फिल्मिस्तान के बैनर तले बनने वाली अपनी पहली हिन्दी फिल्म 'आनंद मठ" के लिए उन्होंने हेमंत कुमार से संगीत देने की पेशकश की। 'आनंदमठ" की सफलता के बाद हेमंत कुमार संगीतकार के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। इस फिल्म में लता मंगेशकर की आवाज में गाया 'वंदे मातरम्" गीत आज भी श्रोताओं में पूरे देशप्रेम का उबालला देता है। वर्ष '1951 मंे फिल्मिस्तान की शर्त में भी हेमंत कुमार का संगीत पसंद किया गया। इस बीच एसडी.बर्मन के संगीत निर्देशन में जाल, हाउस न. 44 और सोलहवां साल जैसी फिल्मों के लिए उन्होंने जो गाने गाए, वे श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुए। वर्ष 1954 में फिल्म नागिन में अपने संगीत को मिलीसफलता के बाद हेमंत कुमार सफलता के शिखर पर जा पहुंचे। नागिन का एक गीत 'मन डोले मेरा तन डोले" आज भी श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय है । इस फिल्म के लिए हेमंत कुमार सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए।
हेमंत कुमार के संगीत से सजी गीतों की लंबी फेहरिस्त मे कुछ है
याद किया दिल ने कहाँ हो तुम
मन डोले मेरा तन डोले
मेरा दिल ए पुकारे आजा
नैन से नैन
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
है अपना दिल तो आवारा
इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चल के
न जाओं सैंया छुडा के बहिंया
बेकरार करके हमे यूं न जाइए
कहीं दीप जले कहीं दिल
जरा नजरों से कह दो जी
ना तुम हमे जानो
वो शाम कुछ अजीब थी
तुम पुकार लो तुम्हारा इंतजार है
पचास के दशक में हेमंत कुमार ने बंगला और हिन्दी फिल्मों मेंसंगीत निर्देशन के साथ साथ गाने भी गाए । वर्ष 1959 में उन्होंन ेफिल्म निर्माण के क्षेत्र मे ंभी कदम रखा और हेमंता बेला प्रोडक्शन नाम की फिल्म कंपनी की स्थापना की जिसके बैनर तले उन्होंने मृणाल सेनके निर्देशन में एक बंगला फिल्म नील आकाशेर नीचे का निर्माण किया । इस फिल्म को प्रेसिडेंट गोल्ड मेडल दिया गया । इसके बाद हेमंत कुमार ने अपने बैनर तले बीस साल बाद, कोहरा, बीबी और मकान, फरार, राहगीर, और खामोशी 1969 जैसी कई हिन्दी फिल्मों का भी निर्माण किया। सत्तर के दशक मे उन्होंने हिन्दी फिल्मों के लिए काम करना कुछ कम कर दिया। वर्ष 1979 में हेमंत कुमार ने चालीस और पचास के दशक में सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन मे गाए अपने गानों को दोबारा रिकार्डक राया और उसे लीजेंड ऑफ ग्लोरी -2 अलबम के रूप में जारी किया, जो काफी सफल रहा।
वर्ष 1989 मे हेमंत कुमार बांग्लादेश के ढाका शहर मंे माइकल मधुसूधन अवार्ड लेने गए जहाँ, उन्होंने एक संगीत समारोह मे हिस्सा भी लिया। समारोह की समाप्ति के बाद जब वह भारत लौटे तब उन्हें दिलका दौरा पड़ा। लगभग पांच दशक तक मधुर संगीत लहरियो सेश्रोताओं को मदहोश करने वाला महान संगीतकार और पार्श्व गायक 26 सिंतबर 1989 को हसे हमेशा के लिए दूर चला गया।

Sunday, September 19, 2010

रफी साहब और मदन मोहन: अनरिलीज्ड सॉन्ग

मुझे याद एक बार युनुसजी ने अपने ब्लॉग पर कहा था कि किसी महान शख्सियत को याद करने के लिए कोई खास दिन मुकर्रर नहीं हो सकता है। आज मदन मोहन जी का एक गीत सुना तो दिल में कुछ ख्यालात आ गए, सोचा कि आप से भी उसे साझा कर लें। मदन मोहन जैसे संगीतकार बिरले ही होते हैं। फ्लॉप फिल्मों को अपने संगीत के दम पर हिट कराने वाले मदनजी का संगीत आज ज्यादा पंसद किया जा रहा है। यह एक दु:खद पहलु ही है कि मदनजी के संगीत को उस समय ज्यादा तवज्जो नहीं मिल पाई जितनी आज। अपने समकालीन संगीतकारों से अलग काम करने वाले मदन जी की हर रचना और उसकी शब्दावली पर पैनी नजर रहती थी। राजा मेहंदी अली खां जैसे अजीम शायर की संगत उनके संगीत और कालजयी बना दिया। वे पूरी तन्मयता के साथ धुन बनाते, गायकों से रियाज कराते और उनकी यह ऊर्जा रिकॉर्डिंग के बाद तक बनी रहती। गायकों के प्रति हमेशा उनके दिल में सम्मान रहता था, यही वजह है कि लताजी ने एक बार कहा कि दूसरे संगीतकारों ने मुझे गीत दिए लेकिन मदनजी ने मुझे संगीत दिया।



मदन मोहन के बेटे संजीव कोहली ने शायद 2009 में उनके ऐसे गीतों की सीडी लॉन्च की जो कभी रिलीज ही नहीं हुए। रफी साहब, लताजी, तलत महमूद, आशाजी ने मदनजी के इन गीतों को अपनी आवाज दी। इनमें कुछ गीत को इतने शानदार है कि बस इन्हें सुनते जाइए...। मुझे यह समझ में नहीं आया कि इन गीतों तो अब तक किसी फिल्मकार ने तवज्जो क्यों नहीं दी। क्यो नहीं किसी फिल्म में ये गीत हमे सुनाई दिए।



ख़ैर मदनजी के उसी अल्बम से से रफी साहब के गाए दो गीतों का जिक्र मैं करना चाहूंगा। एक गीत है कैसे कटेगी जिंदगी तेरे बगैर। दूसरा है आशाजी के साथ धड़कन है तू मेरे दिल की। पहले गीत में स्थिरता है, शब्द सुंदर हैं, संगीत किसी मस्त झरने की तरह बहता जाता है। जबकि दूसरा गीत पाश्चात्य शैली का है। गाने की बीट्स शानदार है और रफी साहब और आशाजी ने इसे अपने चिर-परिचीत अंदाज में गाया है।

फोटो मदन मोहन की अधिकारिक वेब साईट से साभार. मदनजी के अन्य गानों के क्लीक करें.

Sunday, August 22, 2010

जादू : पिनाज मसानी की आवाज और नैय्यरजी का संगीत




कुछ गीत और उनके संयोजन कभी-कभी अचानक याद आ जाते हैं। दूरदर्शन पर गीत और गज़लों से भरपूर एक कार्यक्रम अक्सर रविवार को प्रसारित होता था। यह बात दूरदर्शन के सुनहरे दिनों की है। सुनहरे दिन यानि जब दूरदर्शन पर रामायण, विक्रम बेताल, दादा-दादी की कहानियां, नुक्कड़, खेल-खेल में, हमलोग, बुनियाद जैसे कार्यक्रम आते थे। इसी प्रकार गीत गज़ल के कार्यक्रम, पंकज उद्धास, मनहर, उदित नारायण, अनुराधा पौडवाल, पार्वती खान, कुमार शानू जिनका नाम आज हर कोई जानता है के गीत दूरदर्शन पर गूंजते रहते थे। इन्हीं गीतों में कभी 'शहजादी तरन्नाुम" पिनाज मसानी के गीत भी हुआ करते थे। जरा सोचिए पिनाज मसानी की मदमाती आवाज और ओपी नैय्यरजी का संगीत क्या जादू करता होगा। इन गज़लों में मैं काफी दिनों से ढूंढ रहा था आखिरकार मुझे ये गज़ले इंटरनेट पर मिल गईं। इसे अपलोड करने वाले शख्स (डॉ नाग राव) ने वाकई में वीडियो (रिदम मीट्स गजल एंड ग्लैमर) बनाने में काफी मेहनत की है। नैय्यरजी और पिनाज मसानी के दुर्लभ फोटोग्राफ्स को जोड़ के यह वीडियो अपलोड किया गया है। वीडियो के शुरू के दो मिनट सिर्फ म्यूजिक ही है.....। असल गीत दो मिनट बाद शुरू होता है। इसलिए वीडियो की पूरी तरह बफरिंग हो जाने दें और इस दुर्लभ गज़ल का लुत्फ लें।पिनाज मसानी ने 1981 के आसपास अपनी गायकी शुरू की। उन्होंने करीब भारत की 10 भाषाओं की 50 फिल्मों में गाने गाये। लेकिन उन्हें ज्यादा प्रसिद्धि गज़लों से ही मिली। 1996 में उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने 'शहजादी तरन्नाुम" के खिताब ने नवाजा।
गीत: दिल के शिकारी


गीतकार: नूर देवासी


गायक : पिनाज मसानी


संगीतकार : ओपी नैय्यर


वीडियो: डॉ. नाग राव


Wednesday, August 11, 2010

टोटकों और अंधविश्वास से भरी फिल्मी दुनिया

फिल्मी दुनिया वाले अक्सर यह दावा करते हैं कि वे धर्म और जाति से ऊपर हैं। वे अपने आप को कितना भी मार्डन कह लें लेकिन एक आम से ज्यादा वहमी और अंध विश्वासी होते हैं। तभी तो मुहूर्त शॉट से लेकर फिल्म की रिलीजिंग तक वे सारे टोटके अपनाते हैं जो उनके करोड़ों रुपयों और स्टारडम को बचा सके। इसमें किसी खास अक्षर से लगाव, या फिर किसी खास लोकेशन पर उनका ध्यान रहता है। हिंदी फिल्म उद्योग के कई निर्माता-निर्देशक यदि किसी अक्षर विशेष से प्यार करने लगते हैं तो उसे फिर पूरा निभाते हैं। अक्षर विशेष से उनका प्रेम कभी उनकी फिल्मों के टाइटल तो कभी अभिनेता- अभिनेत्रियों के नामों से परिलक्षित होता रहा है।
जाने माने निर्माता राकेश रौशन को 'के" अक्षर से विशेष प्रेम है। वह अपनी फिल्मों की कामयाबी के लिए 'के" से शुरू होने वाले टाइटलों को हमेशा शुभ मानते आए हैं। 21 मई को प्रदर्शित हुई फिल्म काइट्स में उन्होंने एक बार फिर से टाइटल की शुरूआत 'के" अक्षर से की है। राकेश रौशन इससे पहले भी के अक्षर को अपनी फिल्म के लिए लकी मानते आए है। उन्होंने 'कामचोर", 'खुदगर्ज", 'खून भरी मांग", 'काला बाजार", 'किशन कन्हैया" 'कोयला", 'करन अर्जुन", 'कहो ना प्यार है", 'कोई मिल गया" और 'क्रिश" जैसी के अक्षर से शुरू होने वाली कई सुपरहिट फिल्में बनाई है।
राकेश रौशन की तरह करण जौहर भी फिल्मों के टाइटल के लिए 'क" अक्षर का ही इस्तेमाल करते आए हैं। बतौर निर्माता निर्देशक करण ने 'कुछ कुछ होता है", 'कभी खुशी कभी गम", 'काल", 'कल हो न हो" 'कभी अलविदा ना कहना" और 'कुर्बान" जैसी के अक्षर वाली एक से बढ़कर एक ब्लॉकबस्टर फिल्में बनाई हैं। करण जौहर की बनाई फिल्मों में नायिकायें भी अक्सर 'क" अक्षर वाली ही रहती हैं। उदाहरण के तौर पर 'कुछ कुछ होता है" में काजोल कभी खुशी कभी गम में करीना कपूर और काजोल ने अभिनय किया है। फिल्म 'कल हो न हो" में काजोल ने मेहमान भूमिका निभाई थी। करण जौहर की तरह ही फिल्म निर्मात्री एकता कपूर के लिए 'क" अक्षर लकी रहा है। उनके बनाए गए टीवी सीरियल क अक्षर से ही शुरू होते हैं जिनमें 'कहानी घर घर" की 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी", 'कहीं तो होगा", 'के स्ट्रीट पाली हिल", 'कभी तो मिलेंगे", 'कोई अपना सा", 'कुसुम", 'कुटुम्ब" 'कसौटी जिंदगी की", 'केसर", 'कैसा ए प्यार है", 'कुमकुम" और 'किसी रोज" जैसे उनके टेलीविजन सीरियल काफी लोकप्रिय रहे हैं।
फिल्म इंडस्ट्री में शो मैन सुभाष घई 'म" अक्षर वाली अभिनेत्रियों को अपनी फिल्म के लिए शुभ मानते रहे है। सुभाष घई फिल्म 'हीरो" तथा 'मेरी जंग" में मीनाक्षी शेषाद्रि, 'रामलखन" तथा 'खलनायक" में माधुरी दीक्षित, 'परदेस" में महिमा चौधरी तथा सौदागर में मनीषा कोइराला को ले चुके हैं। इतना ही नहीं उनके बैनर का नाम भी 'म" से ही मुक्ता आर्ट्स है।
सुभाष घई की तरह ही राजकुमार संतोषी भी 'म" अक्षर वाली अभिनेत्रियों को अपनी फिल्म के लिए शुभ मानते हैं। उनकी बनाई फिल्म 'घायल" में मीनाक्षी शेषाद्रि और मौसमी चटर्जी तथा 'दामिनी" में मीनाक्षी शेषाद्रि ने काम किया है। फिल्म 'लज्जा" में तो उन्होंने 'म" अक्षर वाली तीन अभिनेत्रियों महिमा चौधरी, मनीषा कोइराला और माधुरी दीक्षित का अभिनय प्रस्तुत किया। फिल्म 'चाइना गेट" और घातक में अभिनेत्री ममता कुलकर्णी ने राजकुमार संतोषी के निर्देशन में काम किया।
निर्माता-निर्देशक सावन कुमार को 'स" अक्षर से विशेष लगाव है। इसके पहले भी वह अपनी कई फिल्मों के नाम में 'स" अक्षर काइस्तेमाल कर चुके है। इनमें 'साजन बिना सुहागन", 'साजन की सहेली",'सौतन", 'सौतन की बेटी", और 'सनम बेवफा" जैसी फिल्में शामिल है जिन्होंने बाक्स आफिस पर अच्छी खासी कमाई की और कामयाब रहीं।
प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक जेओम प्रकाश का 'अ" अक्षर का प्रेम किसी से छुपा नहीं है। उन्होंने सर्वप्रथम 1961 में 'अ" अक्षर से 'आस का पंछी" फिल्म बनाई थी जिसके हिट होने के बाद उन्हें 'अ" अक्षर से लगाव हो गया। इसके बाद उनकी लगभग सभी फिल्में 'अ" अक्षर वालीरही। इनमें 'आपकी कसम", 'आक्रमण" 'अपनापन", 'आशिक हूं बहारों का" 'आशा", 'अर्पण", 'आखिर क्या" आंखों 'आंखांे में" और 'आन मिलो सजना" उल्लेखनीय हैं। रमेश शिप्पी को एस अक्षर से विशेष प्रेम रहा है। उन्होंने सीता और गीता, शोले, शान, शक्ति और सागर जैसी कई फिल्मों का निर्माण किया। इनमें शोले ने कई कीर्तिमान बनाए और अन्य फिल्मों ने भी शानदार बिजनेस किया।
प्रसिद्ध निर्देशक कल्पतरूअपनी फिल्मों के नाम में घर शब्द का इस्तेमाल करते आए है। इनमें उनकी घर द्वार, घर का सुख, घर-घर की कहानी, बड़े घर की बेटी, अपना घर, घर हो तो ऐसा, घर की लाज और घर की इज्जत, जैसी 'घर" शब्द वाली कुछ फिल्में है।
प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक इंद्र कुमार को भी एक खास पेड़ से लगाव है। जो उनकी सभी फिल्मों के गानों मंे दिखाई देता है। 'दिल" फिल्म के प्रसिद्ध गीत 'मुझे नींद ना आए नींद ना आए" में यह सूखा पेड़ दिखाई देता है।

Saturday, August 7, 2010

आयशा: जोड़ियां बनती हैं आसमान में..


किसी भी फिल्म की कहानी में यदि स्क्रीनप्ले की ओर ध्यान न दिया जाए तो फिल्म का क्या हश्र होता है, इसकी बानगी 'आयशा" में देखने मिलती है। एक अच्छी कहानी को कमजोर स्क्रीनप्ले ने सत्यानाश कर दिया। अगर इस ओर ध्यान दिया जाता तो फिल्म हिट साबित होती है।करीब दो सौ साल पहले जेन ऑस्टिन के नॉवेल 'एमा" पर आधारित है यह फिल्म। फिल्म का निचोड़ यही है कि 'जोड़ियां आसमान में बनती है....."।दिल्ली में रहने वाली आयशा (सोनम कपूर) को दूसरों को सलाह देने में खासा मजा आता है और वह शौकियातौर पर मैच मेकिंग का काम भी करती है। शैफाली (अमृता पुरी) एक बहनजी टाइप की लड़की जिसे वह मॉर्डन बना देती है ताकि उसकी शादी रणधीर (सायरस) से हो सके। लेकिन यहां कहानी उल्टी हो जाती है और रणधीर आयशा को प्रपोज कर देता है...लेकिन आयशा उसे मना कर देती है। इसके बाद और लोगों की भी शादियां जमाने की कोशिश करती है लेकिन असफल रहती है। इस बीच लोग उसके विरोधी भी हो जाते हंै... और अंत में वह सोचती है जोड़ियां जमाई नहीं जाती वह तो ऊपर से ही बनकर आती है.....। कहानी में और भी बहुत कुछ है.... लेकिन.....?

200 साल पहले लिखी गई कहानी को आज के दौर में बनाना काफी मुश्किल काम है। इसके लिए निर्देशक राजश्री ओझा की तारीफ करनी होगी उन्होंने आज के युवाओं को ध्यान में रखकर शानदान फिल्म बनाई है। शानदार इसलिए क्योंकि हर एक किरदार के साथ उन्होंने न्याय किया है। राजश्री ने अपनी तरफ से फिल्म को संभालने की पूरी कोशिश की लेकिन जैसा कि पहले बताया गया कि कमजोर स्क्रीनप्ले के बदौलत फिल्म इतनी सुस्त हो गयी है कि कई जगह ऊबाई आने लगी है। दो घंटे 12 मिनट की फिल्म में कुछ सीन जरुरत से ज्यादा लंबे हैं और फिल्म में अभय देओल और सोनम कपूर पूरे समय लड़ते रहते हैं जो फिल्म का एक और माइनस प्वाइंट है। हाई क्लास की सोसायटी को यह फिल्म बहुत अच्छी लग सकती है क्योंकि इसकी कहानी पैसेवालों के चारों ओर घूमती है। आम आदमी को यह अच्छा नहीं लग सकता। फिल्म का आर्ट डायरेक्शन कमाल का है।
संगीत 'आयशा" का प्लस प्वाइंट है। अमित त्रिवेदी ने अच्छी धुनें बनाईं हैं। फिल्म के दो गाने 'गल मीठी" और 'आयशा" युवाओं की जुबान पर हैं। दिल्ली और ऋषिकेश की खूबसूरत लोकेशन को रॉड्रिग्ज ने बहुत खूबसूरती से फिल्माया है।सोनम कपूर ने जानदार अभिनय से फिल्म में जान फूंक दी है। इरा दुबे और अमृता पुरी भी निराश नहीं करती हैं। अभय देओल हमेशा की तरह की अच्छे है। हां सायरस ने इस फिल्म जरुर चौंकाया है और शानदार अभिनय किया है।
फिल्म एक और खासियत है। इसे यंग लेडी ब्रिगेड बनाया है। निर्देशन किया है राजश्री ओझा ने। निर्माण का दायित्व संभाला है रिया कपूर ने। स्क्रीनप्ले लिखा देविका भगत ने। यानि कंप्लीट यंग लेडी ब्रिगेड।
photo: santabanta.com

Thursday, August 5, 2010

एक प्रेम कहानी के 50 साल


'ताजमहल" हो या 'मुगल-ए-आजम", ऐसी फिल्में बनाने के लिए बेशुमार पैसों की जरूरत होती है। लेकिन पैसा ही सब कुछ नहीं। केवल पैसा उँडेल देने से ये सब बनता तो अब तक शायद अनगिनत 'ताजमहल" और 'मुगल-ए-आजम" बन चुकी होतीं। लेकिन आज तक न दूसरा 'ताजमहल" बन पाया न दूसरा 'मुगल-ए-आजम" बनी।
दाद देना होगी के. आसिफ की जिद की, जिसने दुनिया के सामने इस कहानी को ये कहते पेश किया-
मुहब्बत हमने माना, जिंदगी बरबाद करती है
ये क्या कम है कि मर जाने पे दुनिया याद करती है,
किसी के इश्क में...
रूपहले पर्दे के इतिहास में कामयाबी के झंडे गाड़ती, मील का पत्थर, हाउसफुल के तख्तों से सिनेमा हॉल को रोशन करने वाली फिल्म यानी 'मुगल-ए-आजम"। लगभग 150 सिनेमा घरों में एक साथ प्रदर्शित हुई। जिसने पहले ही सप्ताह में 40 लाख का कारोबार किया। उस दौर के मान से यह बहुत बड़ी बात थी। हिन्दी फिल्मों की पहली दस फिल्मों में अपनी जगह बना लेने वाली 'मुगल-ए-आजम" आज 50 साल पूरे करने जा रही है।
दुल्हन की तरह सजकर तैयार मराठा मंदिर, मुंबई में 5 अगस्त 1960 को रात 9 बजे हाथी पर सवार 'मुगल-ए-आजम" की प्रिंट लाई गई। मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण व नामी गिरामी हस्तियों को न्योता दिया गया था। 85 प्रतिशत श्वेत-श्याम और 15 प्रतिशत रंगीन फिल्म पर से पर्दा उठा। हॉल में सन्नााटा रहा। धीरे-धीरे उबासी, कानाफूसीयाँ बढ़ने लगीं। 19 रील से आखिर तक तो माहौल में मरघट की शांति छा गई। आसिफ के फार्जेट स्ट्रीट स्थित घर में विज्ञापन को लेकर चर्चा के लिए जमा सभी क ा उत्साह नदारद था। एकमत से सबने कहा कि फिल्म पूरी तरह फ्लॉप है, सिर्फ और सिर्फ आसिफ पर इस मुर्दानगी का कोई असर नहीं था। 'सिर्फ हफ्ते भर रुको, फिल्म चलेगी"। लेकिन भरोसा करने को कोई भी तैयार नहीं था।
इधर फिल्म को लेकर दर्शकों की बेचैनी का आलम यह रहा कि पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका से लोग आए थे। आज की तरह ई-मेल से बुुकिंग की सुविधा तो नहीं थी सो दर्शकों ने तीन-तीन दिन पहले से कतार लगा दी, जो रात को भी वहीं कतार में सोते थे।

दिलीप कुमार को नकारा

'मुगल-ए-आजम" के बारे में सुनकर किसी ने के. आसिफ को दिलीप का नाम सुझाया था तब आसिफ ने हँसकर जवाब दिया था 'किसी नए घोड़े पर दाँव लगाकर मुझे 'मुगल-ए-आजम" का एरावत दलदल में उतारने की कतई ख्वाहिश नहीं। कमरुद्दीन यानी के. आसिफ ने अपने इस सपने को पूरा करने अकबर के दीवाने सेठ शापूर पालन जी को साधा।
अनारकली नूतन या मधुबाला दिलीप को लेकर 'हलचल" में विवाद के चलते नरगिस के इंकार से नई अनारकली की खोज कुछ देर मराठी नूतन पर जा रुकी। और आखिर बगैर अनारकली के फिल्म का काम आगे बढ़ा। फिल्म के दौरान सलीम-अनारकली (दिलीपकुमार-मधुबाला) दोनों का प्यार निजी जिंदगी में भी परवान चढ़ता बीच ही में 'नया दौर" आ गई।
बादशाह अकबर और पृथ्वीराज अकबर यानी पृथ्वीराज का काम देख उनके अतिरिक्त और किसी की कल्पना ही गले नहीं उतरती। लेकिन सेट पर वे अक्सर आसिफ के सिर पर सवार रहते 'मैं अकबर को कैसे करूँ?" तब आसिफ ने कुछ 'टिप्स" दीं कि सेट पर तो छोड़िए आप घर में भी बादशाह की तरह पेश आइए। कोई भी काम खुद न करते शाही अंदाज में सिर्फ हुकुम दीजिए। हमेशा आवाज में हुक्म का बेस रखें। ये बातें पृथ्वीराजजी की आदत में इस तरह शामिल हुईं कि जानकारों के मुताबिक उनकी आवाज ही बदल गई।

'सलीम-ए-आजम" नहीं 'मुगल-ए-आजम"

सलीम के किरदार को लेकर दिलीपकुमार भी कुछ नाराज ही रहे। कहानी सुनाते वक्त लगा था कि सारा कुछ अकबर के ही इर्दगिर्द है, लेकिन आसिफ के समझाने पर माने। सलीम के लिए खासतौर पर बनी विग लंदन से मँगवाई गई। बावजूद इसके दिलीप का बुदबुदाना जारी ही था। तब झल्ला कर आसिफ ने कहा- 'मैं 'सलीम-ए-आजम" नहीं बनाना चाहता हूँ, मुझे 'मुगल-ए-आजम" बनाना है।"

बादशाह के जूते

अकबर बादशाह के लिए आसिफ ने (60 साल पहले) 4 हजार रुपए के जूते खरीदे। यह रकम उस वक्त के हिसाब से काफी बड़ी थी, क्योंकि उस दौर में प्रायमरी स्कूल के हेडमास्टर की तनख्वाह ही मात्र 20 रुपए थी। ऐसे में आरडी माथुर (कैमरामैन) ने आसिफ से कहा- कमरुद्दीन भव्य निर्माण के नाम पर बेवजा खर्च? क्या तुम्हारे जूते कैमरे में नजर भी आएँगे? तब अपने खास अदंाज में सिगरेट सुलगाते हँसकर कहा 'अरे माथुर, ये जूते कितने मँहगे हैं इस बात का अंदाजा जब मेरे अकबर को होगा तब उसकी चाल और बोली में जो एक अलहदा शान होगी। तब उसके जूते नहीं उस अकबर के चेहरे पर नजर आने वाली शान मुझे कैमरे में कैद करनी है।

रीटेक पर रीटेक

दिलीप साहब के मुताबिक 'अकबर जब शेख चिश्ती की दरगाह पर मन्नात माँगने तपती बालू रेत में जाते हैं। उस सीन को आपने ठीक से देखा है? उस दृश्य की शूटिंग के वक्त आसिफ साहब ने बहुत रीटेक किए। जिसके चलते पृथ्वीराजजी भी कुछ 'डिस्टर्ब" हुए थे। इस दृश्य में इतना क्या है? हम लोग अपनी 'खास" गपशप में निर्देशक का मजाक उड़ाते थे लेकिन जब पर्दे पर दृश्य आया तब सिगरेट का धुँआ फूँकते आसिफ ने अपने दोस्त से सवाल किया- बताओ अब किस चाल में तुम्हें अधिक नजाकत नजर आती है? पीठ पर पालकी लादे डोलते हाथी की चाल में या बालू रेत पर चलने वाले मेरे अकबर में?"

शीशमहल और प्यार किया तो...

इंदौर के शीशमहल में शूटिंग की इजाजत न मिलना तब चर्चा में रहा। आसिफ ने वैसा ही सेट खड़ा करने की जिद पकड़ ली। जिसमें पूरे दो साल लगे। 35 फुट ऊँचे 80 फुट चौड़े और 150 फुट लंबे इस शीशमहल में बेल्जियम शीशों का इस्तेमाल हुआ। जिसके लिए शापूरजी ने 15 लाख रुपए गिने थे। शीशमहल के रंग-बिरंगे शीशों के चलते प्रकाश परावर्तित होने पर फिल्मांकन नहीं हुआ तो मैं सारे शीशे फोड़ दूँगा आसिफ ने तकनीशियन से कहा था।
इधर 8 साल हो गए, पर फिल्म पूरी होने के आसार नजर नहीं आ रहे थे तब शापूर ने इसकी जिम्मेदारी सोहराब मोदी को सौंपते 30 दिन में फिल्म पूरी करने को कहा। लेकिन रजामंदी देने से पहले शीशमहल का सेट नए सिरे से बनाने की चर्चा जोरों पर थी। इतने में गर्जदार आवाज आई 'जो मेरा शीशमहल तोड़ने की हिम्मत करेगा, उसका पैर टूटेगा" हालाँकि बाद में आसिफ ने मोदी से अपनी बदतमीजी की माफी माँगते एक दृृश्य फिल्मा कर निगेटिव लंदन भेजते नतीजा जानने की इजाजत चाही। शापूर चिढ़े जरूर लेकिन इंकार नही कर सके।
यूनिट डरते-डरते नतीजे का इतंजार कर रही थी कि लंदन की लैब ने फैसला सुनाया 'अप्रतिम"। और आसिफ ने सपने देखना फिर शुरू कर दिया।

मोदी, आसिफ और टैक्सीवाला

सोहराब मोदी स्टूडियो से बाहर निकले किस्मत से उनकी गाड़ी खराब हो गई। कंपनी की गाड़ी छोड़ने आई, तब कंपनी के ड्रायवर ने खुद होकर मोदी से कहा -'साहब ये आसिफ मियाँ भी एक अजब इंसान हैं। यहाँ शूटिंग के लिए अनारकली के बदन पर खरे हीरे-मोती की जिद करता है। दिन में हीरे पन्नाों से खेलता है, लेकिन रहता सादे घर मेें है। उसके बदन पर पहने कुर्ते पाजामे के अलावा एकाध जोड़ ही और होगी। सोता भी चटाई पर है, लेकिन पगार हाथ आई नहीं कि यार दोस्तों में बँट जाती है, बहुत भला आदमी है साब"। घर पहुँचते ही मोदी ने शापूर को फोन मिलाया। 'आपका आसिफ नामक निर्देशक पैदाइशी कलाकार है। अपनी फिल्म का भला चाहते हैं तो उसका निर्देशन, मुझे तो क्या किसी और को भी मत दीजिए यह फिल्म आसिफ को ही पूरी करने दें।
ज्योत्स्ना भोंडवे

यह लेख नईदुनिया में पांच अगस्त के अंक में प्रकाशित हुआ है। और इसकी लेखिका ज्योत्सना जी हैं। नईदुनिया से साभार यह लेख प्रकाशित किया जा रहा है।

Saturday, July 24, 2010

न खट्टा न मीठा एकदम बेस्वाद

प्रियदर्शन की नई फिल्म 'खट्टा मीठा" में कोई स्वाद नहीं है। हालांकि वे एक नई थीम लेकर आए हैं लेकिन पता नहीं क्यों वे उसे परदे पर उतार नहीं पाए।



कुछ अजीब सी लगी यह फिल्म। अक्षय कुमार पूरे समय जोर-जोर से बोलते रहते हैं, कि कान पक जाते हैं। जॉनी लीवर, राजपाल यादव जैसे कलाकार फिल्म में तो हैं लेकिन लगता ही नहीं ये नामचीन कमेडियन हैं। फिल्म शुरूआत से बोरिंग हैं। भला किसी फिल्म में ऐसा होता है कि आप शुरू के आधे घंटे में ही ऊब जाएं। कहानी में इतना बिखराव है कि दर्शकों के समझ कुछ नहीं आता। फिल्म की कहानी बहुत ही लंबी है। इसलिए चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है। लोगों को हसाने के लिए गाली गलौज वाली भाषा का इस्तेमाल किया है जो समझ से परे है। हां कुछ सीन जरुर दमदार हैं। जैसे संजय राणा जब सचिन की बहन को छेड़ता है तो वह उसे उसी दफ्तर में जाकर सबक सिखाता है। सचिन यह अंदाज दर्शकों को रोमांचित कर कर सकता है। फिल्म का संपादन और स्क्रीनप्ले काफी कमजोर है और यही फिल्म को बेस्वाद बनाता। अक्षय कुमार ठीकठाक हैं, थोड़ा कम चिल्लाते तो मजा आता, त्रिशा का काम साधारण है बाकी कलाकार औसत। प्रीतम के संगीत में फीकापन है और सिनेमैटोग्राफी भी साधाराण है।

Friday, June 18, 2010

मणिरत्नम कृत रामायण यानि रावण

मणिरत्नम की रावण जब बन रही थी उसी समय से इसके बारे में दो तरह की चर्चाएं थी। पहली तो ये फिल्म रामायण से प्रेरित है। दूसरी ये कि फिल्म नक्सलवाद पर आधारित है। ख़ैर आम आदमी को इससे कोई मतलब नहीं है कि फिल्म की थीम क्या है? वे बस अभिषेक, ऐश की जोड़ी को देखने थियेटर में घुसे होंगे। यह एक संयोग ही है कि महाभारत पर बनी 'राजनीति" के दो हफ्तों बाद रामायण की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म रिलीज हुई है।
फिल्म का मूल प्लॉट रामायण से प्रेरित है। अब रामायण की कहानी बताने की जरुरत तो नहीं है। सीता हरण से लंका विजय तक की कहानी है फिल्म 'रावण"। फर्क इतना है कि बीरा (अभिषेक) के चंगुल में फंसी रागिनी (ऐश्वर्या) के मरने की तारीख अपहरण के 14 दिन बाद मुकर्रर करता है। इन्हीं 14 दिनों की कहानी है यह फिल्म। इसलिए स्टोरी पर चर्चा नहीं ही करनी चाहिए।



कोई माने या ना माने फिल्म देखते रामायण के सारे पात्र याद आ जाते है।
विक्रम (पुलिस अफसर) राम
ऐश्वर्या राय (पुलिस अफसर की पत्नी) सीता
गोविंदा (फारेस्ट ऑफिसर) हनुमान जैसा...
अभिषेक बच्चन (बीरा) रावण
प्रियामणि (बीरा की बहन) सुरपनखा
लीक से हटकर कहानी, हैरतअंगेज कर देने वाले स्टंट, खूबसूरत लोकेशंस रावण को आम बालीवुड फिल्मों से अलग बनाती है। हालांकि यह मणिरत्नम की अन्य फिल्मों रोजा, बॉम्बे, युवा और गुरु के टक्कर की नहीं है। फिल्म का पहला भाग बोझिल है। बहुत सा समय पात्रों का समय देने में निकल जाता है। कहानी जब फ्लैश बैक में जाती तो थोड़े समय के लिए दिमाग घूम जाता है। 'युवा" जिन्होंने देखी होगी वे इसके शुरू के 20-25 मिनट में ही पूरी फिल्म की थीम समझ जाते हैं। लेकिन रावण इंटरवल तक समझ नहीं आती है जबकि आपको यह पता है कि फिल्म का प्लाट रामायण से लिया गया है। आप यही सोचते रहेंगे फिल्म नक्सलवाद पर आधारित होगी। दूसरे हाफ में फिल्म अपने ट्रैक पर वापस आ जाती है।
फिल्म के पात्र भी अजीब से है। जैसे बीरा का चरित्र तुनकमिजाज साइको व्यक्ति जैसा है। रागिनी बीरा से सहानुभूति रखती है। यह भी हजम नहीं होता। रागिनी के पति देव प्रताप सिंह शुरू से खलनायक लगते है। शादी में फायरिंग और तमाम चीजें गले से नहीं उतरती।
अब बात अदाकारी की तो...यह ऐश्वर्या की अदाकारी के लिए याद रखी जाएगी। शायद जोधा के रोल के बाद इसी फिल्म उन्होंने खूब मेहनत की है। अभिषेक साधारण रहे हैं गुरु वाली बात भी नहीं। गोविंदा ने इतना छोटा रोल क्यों स्वीकारा समझ नहीं है। ब्रिकम का अभिनय भी शानदार है। रवि किशन ने अपने चरित्र से पूरा इंसाफ किया है।
'रावण" की लोकेशन, सिनेमैटोग्रॉफी और स्टंट सीन कमाल के हैं। घने जंगल, ऊंचे-ऊंचे पहाड़, झरने नदिया, बोट्स ये सब परदे पर रोमांच पैदा करने के लिए काफी हैं। ऊपर से संतोष सिवान के शॉट्स जिसमें डेफ्थ ऑफ फील्ड की कलाकारी की बात ही निराली है।

Wednesday, June 16, 2010

भीगा तन, भीगा मन

हिंदी फिल्मों में बरसात के सुपरहिट गीतों की श्रृंखला
भाग एक


फिल्म 'बरसात" के सुपरहिट गीत 'बरसात में तुमसे मिल हम सजन बरसात में तक धिना" से 'ऑन द रूफ इन रेन" तक फिल्मों में बरसात आधारित गीतों का अहम रोल रहा है। कुछ गाने ऐसे भी हैं जिनमें बारिश का जिक्र तो नहीं है लेकिन नायिका को जमकर बारिश में भिगोया है। यश राज की फिल्मों में बारिश तो सबसे अहम चीज है। इन दिनों मानसून लगभग पूरे देश में छाया है जहां पानी नहीं बरस रहा है वहां लोग टकटकी लगाए उसका इंतजार कर रहे हैं। आइए आज मानसूनी गीतों की चर्चा हो जाए।

प्यार हुआ इकरार हुआ
श्री 420 का यह गाना अब तक सर्वश्रेष्ठ रेन सॉन्ग है। नरगिस और राजकपूर एक छतरी के नीचे, मुसलाधार बारिश। चाय वाले की केटली से निकलती भाप। वाह क्या सीन है। जैसा गाना है वैसा ही संगीत। एक दम फुहारों जैसा। शैलेंद्र के बोल और शंकर जयकिशन की धुन ने वाकई जादू कर दिया है। 'मैं ना रहूंगी तुम ना रहोगे फिर भी रहेगी निशानियां....."। तभी कैमरे का एंगल चेंज होता है और तीन नन्हें बच्चों को रेनकोट में दिखाया जाता है। जो कपूर खानदान के ही चिराग हैं।



इक लड़की भीगी भागी सी
चलती का नाम गाड़ी का यह गाना भी वाकई अद्भुत है। किशोर कुमार और मधुबाला की कैमिस्ट्री भी गजब है। भीगी साड़ी मंे मधुबाला को देखकर किशोर दा का गाना गाना। मधुबाला की बिगड़ी कार की मरम्मत करना तो कभी उन्हें छुपकर निहारना। मजरूह साहब के शब्दों को सचिन दा बखूबी धुन में पिरोया है।


एक लड़की भीगी भागी सी
सोती रातों में जागी सी
मिली इक अजनबी से
कोई आगे ना पीछे
तुम ही कहो ये कोई बात है...।

दिल ही दिल में जली जाती है बिगड़ी बिगड़ी चली आती है
झूंझलाती हुई बलखाती हुई, सावन की सुनी रातों में।।

डगमग डगमग लहकी लहकी, भूली भटकी बहकी बहकी
मचली मचली घर से निकली, पगली सी काली रात में।।

तन भीगा है, सर गीला है उसका कोई पेंच भी ढीला है
तनती झुकती चलती रुकती निकली अंधेरी रात में।।

क्रमश:

Saturday, June 5, 2010

राजनीति: आधुनिक महाभारत


एक राजनीतिक परिवार के चारों तरफ घूमती 'राजनीति" एक जबरदस्त फिल्म है। फिल्म की कहानी का प्लाट महाभारत से लिया गया है। इसके पात्र, इसकी घटनाएं देखकर महाभारत सीरियल की याद आती है। इसके चरित्र दुर्योधन, धृतराष्ट्र, अर्जुन, श्री कृष्ण, करण, कुंति, जैसे हैं।
फिल्म की शुरुआत चुनावी अखाड़े से होती है। एक शक्तिशाली राजनीतिक परिवार के मुखिया को लकवा मार जाता है। इसके बाद वह अपने भाई (चेतन पंडित) और पृथ्वी (अर्जुन रामपाल ) को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देता है। यह बात उसके बेटे वीरेद्र (मनोज बाजपेई) को नागवार गुजरती है। वह इसके खिलाफ आवाज उठाता है लेकिन उसका साथ देने वाला कोई नहीं होता। उधर दलितों को उनका वाजिब हक दिलाने के लिए राजनीति में उतरने का ख्वाब देख रहा सूरज (अजय देवगन) की पृथ्वी से मुलाकात होती है और दोनों साथ हो लेते हैं। इस बीच चुनावी बिगुल बज जाता है और पृथ्वी के पिता को भावी मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया जाता है। लेकिन उनकी हत्या हो जाती है। अमेरिका मेंे पढ़ाई कर रहा समर (रणबीर कपूर) अपने भाई की मदद करने के लिए भारत में ही रुक जाता है। इन दोनों की मदद करते हैं नाना पाटेकर (ब्रजगोपाल) जो इनके मुंहबोले मामा हैं। वीरेंद्र अपनी कूटनीति और षड्यंत्र रचकर पृथ्वी को पार्टी से बाहर करवा देता है। पृथ्वी अपने भाई के साथ नई पार्टी बनाकर वीरेंद्र के खिलाफ चुनाव लड़ता है। इस बीच इंदु (कैटरिना कैफ) जो समर से प्यार करती है राजनीतिक मजबूरी में पृथ्वी से शादी कर लेती है। चुनाव जीतने के लिए शुरू होता हिंसा, षड्यंत्रों का दौर। इसमें दोनों परिवार वाले इस हद तक गिर जाते हैं कि दोनों को काफी नुकसान होता है।
प्रकाश झा ने महाभारत को ध्यान में रखकर आधुनिक राजनीति को फिल्माया है। हालांकि जो राजनीतिक लोचलेबाजी, षड्यंत्र दिखाए गए हैं। करीब 2 घंटे 50 मिनट लंबी फिल्म पर प्रकाश झा ने खूब मेहनत की है। हर एक पात्र का चरित्र ऐसा गढ़ा है कि वह अपने आप में दमदार लगता है। हां इतना जरुर है कि फिल्म जब शुरू होती है तो सारे चरित्रों को देखकर उनके नाम याद रखने और कौन किसका भाई है, किसका चाचा, किसका भतीजा या भंाजा यह समझने में दिक्कत होती है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं जो महाभारत की याद दिला देते हैं (अगर आपको महाभारत सीरियल याद है तो...।)।
1) जैसे फिल्म के शुरू में भारती (निखीला) एक कॉमरेड के प्यार में डूब जाती है और बिन ब्याही मां बन जाती है। बच्चा पैदा होने पर ब्रजगोपाल उसे बनारस में एक नांव में छोड़ आता है। महाभारत में जब कुंति भगवान सूर्य के वरदान से जन्मे बेटे को जो बाद में कर्ण होता है को नदी में छोड़ आती है।
2) एक दृश्य में सूरज टिकट मांगने के लिए राष्ट्रवादी के कार्यालय जाता है जहां उसे पृथ्वी डांट-डपटकर भगाने की कोशिश करता है तो वीरेंद्र उसे अपनी अप्रोच का हवाला देकर पार्टी की वर्किंग कमिटी में नियुक्ति दिला देता है। महाभारत में भी ऐसा ही दृश्य है जब पाण्डव और कौरव शिक्षा पूरी करके हस्तिनापुर लौटते हैं और रंगभूमि में जब अपनी युद्धकला दिखाने के दौरान कर्ण, अर्जुन को ललकारता है कृपाचार्य उसे युद्ध से मना कर देते हैं और कहते हैं कि रंगभूमि में युद्ध करने के लिए किसी देश का युवराज होना जरुरी है। सो दुर्योधन कर्ण को तत्काल अंग देश का राजा नियुक्त कर देता है।
और भी कई उदाहरण हैं। पात्रों में अजय देवगन कर्ण जैसे, नाना पाटेकर श्री कृष्ण, रणबीर कपूर अर्जुन, मनोज बाजपेयी दुर्योधन, कैटरिना कैफ द्रौपदी जैसे शेड लिये है।

इस फिल्म के सभी कलाकारों ने जबरदस्त अभिनय किया है। कोई कम नहीं है। लेकिन सबसे चौंकाने वाला चरित्र और अभिनय है रणबीर कपूर का। अभी तक चॉकलेटी लवर ब्वॉय की भूमिकाएं करने वाले रणबीर ने आलोचकों के मुंह पर ताले लगा दिए हैं। शांत, गंभीर और शातिर व्यक्ति के रोल में खूब जमे हैं। वहीं नाना पाटेकर हमेशा की तरह हिट हैं।
राजनीति हमेशा प्रकाश झा का पसंदीदा विषय रहा है। फिल्म शुरू होती है कसी हुई पटकथा के साथ मध्यांतर तक फिल्म पूरी रफ्तार से भागती है। लेकिन इसके बाद की विषयवस्तु राजनीति न होकर गैंगवार और हिंसा में तब्दील हो जाती है। फिल्म अंत तक पहुंचने पर एक ढीली हो जाती है। कुछ दृश्य हास्यासपद लगते हैं। खासकर जब अजय देवगन से मिलने उसकी असली मां पहुंची है और कहती हैं कि 'तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो।" यह भी महाभारत का ही प्रभाव है।
फिल्म के आखिरी दृश्यों को छोड़ दें तो पूरी फिल्म शानदार बन पड़ी है। कसा हुआ निर्देशन, शानदार डॉयलॉग ('राजनीति में मुरदों को गाड़ा नहीं जाता बल्कि जिंदा रखा जाता ताकि वक्त आने पर वे बोल सकें।" या फिर ये संवाद, 'राजनीति में कोई फैसला सही या गलत नहीं होता, अपने उद्देश्य को सफल बनाने के लिए लिया जाता है। ") के कारण फिल्म को देखा जा सकता है। चूंकि इसकी शूटिंग भोपाल में हुई तो और भी देखना चाहिए।

कलाकार: रणबीर कपूर, अजय देवगन, मनोज बापपेयी, नाना पाटेकर, कैटरिना कैफ, अर्जुन रामपाल, नसीरुद्दीन शाह, सारा थॉमसन केन, दर्शन जरीवाला, चेतन पंडित।
निर्माता: रॉनी स्क्रूवाला, प्रकाश झा।
निर्देशक: प्रकाश झा
सिनेमैटोग्राफी: सचिन कृष्णनन

फोटो: http://www.bollywoodhungama.com/ से साभार

Thursday, June 3, 2010

राज कपूर: शो पूरे तीन घंटे का


भाग 2
अंदाज के बाद राज कपूर ने निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा और बरसात (1949), आवारा (1951), श्री 420 (1955), चोरी-चोरी (1956), जिस देश में गंगा बहती है (1960) जैसी सफल फिल्में बनाईं। इन फिल्मों ने राज कपूर को चार्ली चैपलिन वाली भारतीय इमेज दी।
इन सभी फिल्मों में राज कपूर ने आम आदमी का बखूबी चित्रण किया। उनकी फिल्मों में फुटपाथ पर रहने वाले, फेरी लगाने वालों को आसानी से देखा जा सकता था। राज कपूर अक्सर महंगे होटलों और रेस्तरां के बजाए छोटे-छोटे ढाबों पर जाते और लोगों से बात करते और उसी आधार पर अपने फिल्मों के चरित्र गढ़ते। राज कपूर ने हमेशा आम आदमी के लिए फिल्में बनाई। 1960 के दशक में उन्होंने संगम बनाई। जिसके निर्माता-निर्देशक वे स्वयं थे। फिल्म में राजेंद्र कुमार, वैजयंतिमाला और स्वयं राज साहब केंद्रीय भूमिका में थे। यह उनकी पहली रंगीन और नायक के तौर पर आखिरी हिट फिल्म थी।
इसके कुछ सालों के बाद उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म मेरा नाम जोकर शुरू की। यह फिल्म करीब छह सालों में पूरी हुई। फिल्म बनाने में काफी पैसा भी खर्च हुआ। लेकिन 1970 में जब फिल्म रिलीज हुई तो यह बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी। राज कपूर के लिए यह बहुत बढ़ा झटका था। क्योंकि यह उनका ड्रिम प्रोजेक्ट था। ऐसा कहा जाता है कि फिल्म की कहानी उनके निजी जीवन से प्रेरित थी। फिल्म की लंबाई भी काफी चर्चा का विषय थी। ऐसा कहा जाता है कि जब यह फिल्म बनी तो इसकी लंबाई करीब पांच घंटे की थी। इसकी अंतराष्ट्रीय स्तर पर रिलीज की गई डीवीडी में लंबाई करीब 233 मिनट रखी गई है जबकि भारतीय दर्शकों के लिए इसमें 184 मिनट की फिल्म काट दी गई। यह ऋषि कपूर की पहली फिल्म थी। मेरा नाम जोकर के पिटने से राज कपूर को इतना घाटा हुआ था कि एक बार तो उन्होंने कर्ज चुकाने के लिए आरके स्टुडिओ को नीलाम करने की तक सोच डाली थी।



इतना होने के बाद भी फिल्म को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार शंकर जयकिशन, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक राज कपूर, सर्वश्रेष्ठ सिनेमैटोग्राफी राध करमरकर, सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक मन्नाा डे (ऐ भाई जरा देख के चलो...) और सर्वश्रेष्ठ साउंड रिकॉर्डिंग अलाउद्दीन खान कुरैशी को फिल्म फेयर अवार्ड मिला। यह उस समय की मेगा स्टार फिल्म थी, जिसमें राज कपूर के अलावा, धर्मेंद्र, मनोज कुमार, सिमी ग्रेवाल, दारा सिंह, पद्ममिनी, राजेंद्र कुमार, अचला सचदेव, ऋषि कपूर और रशियन आदाकारा सेनिया प्रमुख थीं।
क्रमश:

भाग-1 (यहां पढ़ें)
फोटो साभार: tribuneindia.com

Tuesday, June 1, 2010

राज कपूर: शो पूरे तीन घंटे का



भाग-1
आज यानि 2 जून को राज कपूर की पुण्यतिथि है। अगर वे हमारे बीच होते तो उनकी उम्र 86 साल होती। बहुत हद तक संभव है कि वे रणबीर कपूर को लेकर कोई फिल्म बना रहे होते, या ये भी संभव की रणबीर का फिल्मों में पदार्पण सांवरिया के बजाए आरके बैनर से होता। उन्हें हमसे जुदा हुए करीब 22 बरस हो गये। जिस समय उनकी मौत हुई थी मैं आठ बरस का था। मुझे याद है दूरदर्शन पर एक दिन स्मिता पाटिल की असमय मृत्यु पर फिल्मी सितारों की बाइट चल रही थी। उसी बाइट में राज कपूर जी भी थे। मुझे बताया कि ये वही हैं जो 'मेरा जूता है जापानी ये पतलून इंग्लिस्तानी" गाने में है। ये गाना मुझे उस वक्त बहुत पसंद था (आज भी है।) कारण जब कभी यह गाना चित्रहार में आता था मुझे वो सांप वाले सीन में राज कपूर को भागते देखने में बड़ा मजा आता था। आज भी जब इस गीत को देखता हूं तो हंसी छूट जाती है और यही वो गीत हैं यही फिल्में जो राजजी को हमारे बीच जीवित रखे है।

शो मैन राज कपूर का असली नाम रणबीरराज कपूर था। घर में फिल्मी माहौल होने के कारण उन्हें भी फिल्मों का चस्का लग गया। जब उन्होंने यह बात अपने पिता पृथ्वीराज कपूर से कही तो उन्होंने एक चौथे असीसटेंट की हैसियत से केदार शर्मा के पास भेजा। केदार शर्मा उस समय के नामचीन निर्देशकों में से एक थे। केदार शर्मा ने राज कपूर को क्लैपर ब्वॉय के रूप में भरती कर किया। एक दिन की बात है किसी शॉट को फिल्माने के दौरान राज कपूर ने क्लैप को इतनी जोर से टकराया कि
अभिनेता की नकली दाढ़ी उसमें फंसकर बाहर आ गई। केदार शर्मा ने गुस्से में राज कपूर को जोरदार थप्पड़ रसीद कर दिया। थप्पड़ ने अपना काम किया और राज कपूर को बाद में केदार शर्मा के निर्देशन में ही 'नीलकमल" मिल गई। इस फिल्म में
मधुबाला उनकी नायिका थीं। 1947 में ही उन्होंने 'आरके" बैनर की नींव रखी और उनकी इसी बैनर से फिल्मों का निर्माण शुरू हुआ। वे उस समय सबसे कम उम्र के निर्माता निर्देशक थे। उन्होंने जब पहली फिल्म 'आग" का निर्माण किया तो उनकी उम्र सिर्फ 24 साल थी। लेकिन यह बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी। इसके बाद उन्हें मिली महबूब खान की 'अंदाज"इस फिल्म में राज कपूर के अलावा दिलीप कुमार नरगिस जैसे मझे हुए कलाकार थे। इस ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया और राजकपूर रातों-रात स्टार बन गए।

क्रमश:

आज की एक खबर
मुम्बई की शेमारू एंटरटेनमेंट भारतीय सिनेमा के पहले शोमैन राज कपूर की 21 फिल्मों के डीवीडी का एक विशेष पैकेज कल श्री कपूर की 22 वीं पुण्यतिथि के अवसर पर जारी करेगी। शेमारू के अनुसार पैकेज में तीन तीन फिल्मों वाले सात डीवीडी के इस पैकेज में आरके बैनर की सभी 21 फिल्में होंगी। राज कपूर ने 12 वर्ष की उम्र में फिल्म उद्योग में कदम रखा था और 24 साल की उम्र में अपना स्टूडियो और बैनर आर के फिल्म्स शुरूकिया।

Monday, May 24, 2010

काइट्स: वो काटा....


रितिक और बारबरा मूरी की इस फिल्म का लोगों को बेसबरी से इंतजार था। जोधा अकबर के बाद रितिक दो साल बाद परदे पर नजर आ रहे हैं वह भी होम प्रोडक्शन में। फिल्म को लेकर चर्चा काफी पहले से चल रही थी क्योंकि इसके साथ रिलायंस पिक्चर्स का नाम जुड़ा था। हॉट सीन की चर्चा जोरदार थी।
फिल्म शुरू होती है मैक्सिको के रेगिस्तान से जहां पर कोई रितिक रोशन (जे) को मरने के लिए छोड़ गया है। फिर कहानी फ्लैश बैक में चली जाती है। जहां पर रितिक अपनी तंगहाली को दूर करने के लिए लास वेगास के एक महा-अरबपति (कबीर बेदी) की बेटी कंगना रानावत से प्यार का झूठा नाटक करता है। यहां पर कुछ समय के लिए कहानी फिर फ्लैश बैक में जाती है और फिर पहले वाले फ्लैश बैक में आ जाती है। (उफ्फ ये फ्लैश बैक और रीयल लाइफ ) फिर.....खलनायक आता है......मारधाड़ के बीच रोमांस.....। शादी....। कहानी जब अपने मुकाम पर पहुंचती है तो आप खुद को ठगा महसूस करते हैं।
फिल्म का पहला हिस्सा बहुत ही धीमा है। फिल्म के आधे डायलॉग या तो अंग्रेजी में है या स्पेनिश में। इसे समझने के लिए नीचे सब टाइटल पढ़ने पड़ेंगे। जब तक आप यह पढ़ेंगे तब तक सीन बदल जाएगा और मजा किरकिरा हो जाएगा। पूरी फिल्म में एक डॉयलाग खालिस हिंदी में है जो बारबरा मूरी पर फिल्माया गया है जिसे सुनकर हंसी आनी ही है (मैं उल्लू की....।) फिल्म दूसरे हिस्से से रोचक होती है। इसमें भी एक्शन सीन का हाथ है। जो पूरी तरह हॉलीवुड की फिल्मों से प्रेरित लगते हैं।
फिल्म की रिलीजिंग के पहले इसे इंटरनेशनल फिल्म के रूप में प्रमोट किया जा रहा था। लेकिन निर्देशक अनुराग बसु ने इसमें बॉलीवुडनुमा तड़का लगा ही दिया है। जहां खलनायक जो हमेशा नायक-नायिका का पीछा करता रहता है। रेल पटरी पर पड़ा महीनों पुराना धूल मिट्टी में पड़ा मोबाइल चालू हालत में रहता है, उसे सिर्फ चार्ज भर करने की देरी है।
पूरी फिल्म में रितिक छाये हुए हैं। चाहे वह एक्टिंग हो, या डांस या फिर एक्शन दृश्य। बारबरा रितिक के सामने कुछ जमी नहीं हैं, उनका अभिनय भी ठीक-ठाक है। हालांकि परदे पर उनकी कैमेस्ट्री देखने लायक है। कंगना रानावत अपने उसी उदासी वाले रोल में है। फिल्म का संगीत बढ़िया हैं। सिनेमैटोग्राफी भी कमाल की है। लेकिन ये सब एक बड़े वर्ग को फिल्म देखने नहीं खींच पाएगी।
कलाकार: रितिक रोशन, बारबरा मूरी, कंगना रानावत, कबीर बेदी, निकोलस ब्राउन।
निर्माता: राकेश रोशन।
निर्देशक: अनुराग बसु।
संगीत: राकेश रोशन।
सिनेमैटोग्राफी: अयंका बोस

Thursday, May 6, 2010

मनमोहन देसाई: करिश्माई निर्देशक





कल देर रात 'अमर अकबर एंथोनी" देखी। पहले भी कई बार देखी थी और यकीन मानिये हर बार देखने में उतना ही मजा आता है जितना कि पहली बार देखने वाले को आया था। मनमोहन देसाई वाकई करिश्माई दिग्दर्शक थे। हिंदी चित्रपट में तो वे ही मसाला फिल्मों का जनक हैं। उनकी फिल्में होती ही ऐसी थीं। दिमाग पर तो जोर डालना ही नहीं पड़ता था।
मनमोहन देसाई ने यूं तो अपने शुरूआती दिनों में 'छलिया", 'ब्लफ मास्टर", 'बदतमीज", 'सच्चा-झूठा", 'रोटी", और 'रामपुर का लक्ष्मण" जैसी फिल्मों का निर्देशन किया। लेकिन सत्तर के दशक में अमर अकबर एंथोनी, मर्द, धरमवीर, सुहाग जैसी फिल्मों ने उन्हें खास पहचान दी। सभी फिल्में जबरदस्त हिट हुईं। जैसा मैंने पहले कहा कि मनमोहन देसाईजी की फिल्म देखते समय दिमाग पर जोर नहीं डालना पड़ता। अब अमर अकबर एंथोनी के उस सीन को याद किजीए जहां, 'शबाना आजमी (शुरू में बदमाशों के गैंग से ताल्लुक रखती हैं।) लिफ्ट मांगती हैं। आदमी को यदि राइट साइड जाना है तो वह राइट में खड़े होकर लिफ्ट मांगेगा और अगर लेफ्ट जाना है तो लेफ्ट साइड खड़े होकर लिफ्ट मांगेगा। लेकिन यहां सिचुएशन एकदम उलट है। शबाना को जब राइटवाले लिफ्ट नहीं देते तो वह उसी साइड खड़े होकर लेफ्ट जाने का इशारा करती है।" छोटे से सीन में मनमोहनजी ने शबाना का पूरा चरित्र परदे पर उतार दिया। दर्शक समझ जाता है कि इसे लिफ्ट से मतलब नहीं है। यह तो रुपये ऐंठने की तरकीब मात्र है। इसी फिल्म के क्लाइमेक्स में अमर (विनोद खन्नाा,) अकबर (ऋषि कपूर) और एंथोनी (अमिताभ बच्चन) भेस बदलकर गुंडों के अड्डे पहुंचकर गाना गाते हैं और कई बार अपना परिचय अमर अकबर एंथोनी के रूप में देते हैं। लेकिन गुंडों को समझ नहीं आता है, ये कौन हैं? यही नहीं इसी फिल्म में पेड़ की डाली मां (निरूपमा राय) के सिर पर गिरती है तो उसे दिखाई देना बंद हो जाता है, और फिर शिरडी वाले साईं बाबा वाली कव्वाली में साईं बाबा की मूर्ति से निकली दिव्य ज्योति से उनकी आंखों की रोश्ानी वापस भी आ जाती है। है ना कमाल के मनमोहन जी। अब बताइए ऐसी फिल्म देखने में मजा तो आएगा ही।
जरा मर्द फिल्म को याद करें। जब दारा सिंह अपने नवजात (बड़े होकर अमिताभ बच्चन) के सीने पर चाकू से मर्द लिख देते हैं और वह नवजात हंसता रहता है। यही मर्द बड़ा होकर अपने हाथों से रस्सी के सहारे विमान को भी रोक लेता है। मर्द फिल्म में ही मां को शेर बचाकर ले जाता है और जब मां उसे नमस्कार करती तो शेर भी 'हाथ जोड़ लेता है। उस समय परदे पर इस सीन को देखकर कितनी सीटियां बजती होंगी इसका अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। धरमवीर में खिड़की से फेंके गए बच्चे को बाज अपनी चोंच में 'कैच" कर लेता है और उसे सुरक्षित उसके पिता के पास पहुंचा देता है।
मनमोहनजी ने अपने पूरे करियर में करीब 20 फिल्मों का निर्देशन किया जिनमें से तकरीबन 13 फिल्में हिट रहीं। क्या बात आज है ऐसा कोई निर्देशक। मनमोहन देसाई ने राज कपूर, श्ाम्मी कपूर, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्नाा, ऋषि कपूर, राजेश खन्नाा, रणधीर कपूर, धर्मेंद्र, जितेंद्र जैसे सितारों के साथ काम किया। आज के बहुत से निर्देशक मनमोहन देसाई के सिनेमा के कायल है और उनकी फिल्मों में यह बात दिखाई भी देती है। डेविड धवन की फिल्में भी ऐसी ही होती हैं। मनमोहन देसाई ने ऐसे समय 'मसाला फिल्मों" को पेश किया जब भारतीय सिनेमा आर्ट फिल्मों की झुक रहा था और वह अंतरराष्ट्रीय फिल्म उत्सवों में हिस्सा लेकर खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा था। लेकिन मनमोहन देसाई ने हमेशा अपने मन की सुनी और दर्शकों को स्वस्थ मनोरंजन दिया।
एक नजर देसाईजी की फिल्मों पर
छलिया (1960)
बल्फ मास्टर (1963)
बदतमीज (1966)
सच्चा झूठा (1970)
रामपुर का लक्ष्मण (1972)
आ गले लग जा (1973)
भाई हो तो ऐसा (1973)
रोटी (1974)
परवरिश (1977)
धरमवीर (1977)
अमर अकबर एंथोनी (1977)
सुहाग (1979)

नसीब (1981)


देश प्रेमी (1983)

कुली (1983)
मर्द (1985)
गंगा जमुना सरस्वती (1988)
तूफान (1989) (निर्माता थे।)
photo courtesy: memsaabstory.wordpress.com/.../ and satyamshot.wordpress.com
p-pcc.blogspot.com/2008/06/mard-1985.html

Thursday, April 29, 2010

अकेले पड़ गए शंकर




कल की पोस्टिंग से आगे।
फिल्म बरसात का हिंदी फिल्म में बहुत महत्व है। शंकर जयकिशन ने जहां इसी फिल्म से करियर की शुरूआत की वहीं गीतकार शैलेंद्र और जसरत जयपुरी और अभिनेत्री निम्मी का भी फिल्मी दुनिया में पदार्पण हुआ। बरसात फिल्म के बाद शंकर और जयकिशन की जोड़ी ने पूरी फिल्मी दुनिया में धूम मचा दी। इनमें से कुछ है बरसात मंे हम से मिले तुम सजन (बरसात 1949) आवारा हूं या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं (आवारा 1951) ऐ मेरे दिल कहीं और चल गम की दुनिया से दिल भर गया (दाग 1952) प्यार हुआ इकरार हुआ है, मेरा जूता है जापानी, इचक दाना बिचक दाना, (श्री 420-1955) जहाँ मैं जाती हूॅ वहीं चले आते हो (चोरी-चोरी 1956) सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी (अनाड़ी 1959) अजीब दास्तां है ए कहाँ शुरू कहाँ खतम (दिल अपना और प्रीत पराई 1960) चाहे कोई मुझे जंगली कहे (जंगली 1961) बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं, मंै का करू राम मुझे बुडढा मिल गया (संगम 1964) सजन रे झूठमत बोलो ( तीसरी कसम 1967) मैं गाऊं तुम सो जाओ (ब्रह्मचारी 1968) लिस्ट और भी लंबी है। 1971 में जयकिशन की मौत के बाद शंकर ने अकेले ही संगीत देना शुरू किया। लेकिन फिल्मों में शंकर जयकिशन नाम जाता था। कारण दोनों ने एक दूसरे वादा किया था कि अगर करियर के दौरान किसी की मौत हो जाती है तब भी नाम दोनों के ही जाएंगे। शंकर तो अकेले संगीत देते रहे लेकिन जिन फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया वे बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट गईं। ऐसा कहा जाता है कि उन फिल्मों का संगीत भी काफी मधुर था। शंकर ने इसके बाद 1975 में संन्यासी फिल्म का संगीत दिया जो काफी लोकप्रिय हुआ। इसके भी कुछ फिल्मों जैसे पापी पेट का सवाल है, गरम खून, चोरनी, ईंट का जवाब पत्थर से में संगीत दिया। हालांकि इन फिल्मों को आशातीत सफलता नहीं मिल सकी।
1978 में राज कपूर की फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम् के लिए शंकर को अप्रोच किया जाना था लेकिन मुकेशजी ने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का उछाल दिया और शंकर इस फिल्म से आउट हो गये। इसके बाद राज कपूर अपनी एक और फिल्म परमवीर चक्र के लिए शंकर जो लेना चाहते थे लेकिन बदकिस्मती से यह फिल्म का प्रोजेक्ट पूरा ही नहीं हो पाया और शंकर की वापसी फिर आरके बैनर में कभी नहीं हुई। बरसात से हुई शुरूआत का अंत ऐसा होगा किसी ने सोचा भी न होगा।
बात 26 अप्रैल 1987 की है। जब हिंदी फिल्मों का यह चमकता सितारा हमेशा के लिए अस्त हो गया। उनकी मौत को न मीडिया ने तवज्जो दी और न फिल्मी दुनिया ने।
शंकर और जयकिशन मानो एक दूसरे के लिए ही बने थे। इन दोनों के बारे में कुछ दिलचस्प किस्से प्रचलित हैं।
शंकर ने फिल्म आह में एक मछुआरे की छोटी सी भूमिका अदा की थी तो जयकिशन ने श्री 420 में नादिरा के शराबी पति की।
जाने कहां गए वो दिन (मेरा नाम जोकर) की धुन का इस्तेमाल सबसे पहले राज कपूर की फिल्म आह में बैकग्राउंड के रूप में किया गया था। इसी तरह झूठ बोले कौआ कांटे (बॉबी) की धुन भी बैकगाउंड के रूप में आवारा में सुनाई दी थी।
शंकर ने अइअईया सुकू सुकू में सूकू सूकू शब्द गाया था।
फिल्म संगम के गीत दोस्त दोस्त ना रहा प्यार, प्यार ना रहा और ब्रह्मचारी के गीत दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर में प्यानो शंकर ने खुद बजाया था।
शंकर जयकिशन ने मो. रफी की आवाज का इस्तेमाल राजकपूर के लिए बरसात (मैं जिंदगी में हरदम रोता ही रहा हूं और किशोर कुमार के लिए जी हां किशोर दा के लिए फिल्म शरारत अजब है दास्ता के लिए था।)
ओपी नैय्यर ने खुद शंकर को फिल्म इंडस्ट्री का सबसे बड़ा और संपूर्ण संगीतकार का दर्जा दिया था।

समाप्त

Tuesday, April 27, 2010

शंकर: एक महान संगीतकार भाग एक



अभी 26 अप्रैल को शंकर की पुण्यतिथि थी। जयकिशन के साथ उनकी जोड़ी को सबसे कामयाब संगीतकार माना जाता है। शंकर जयकिशन ने 50 और 60 के दशक में एक से बढ़कर एक कालजयी धुनें दीं। लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया जब इस जोड़ी में टकराव हो गया। शंकर और जयकिशन ने एक दूसरे से वादा किया था कि वे कभी किसी को नहीं बताएंगे कि कौन सी धुन किसने बनाई है। लेकिन एक बार जयकिशन अपना वादा भूल गए और उन्होंने एक पार्टी में बता दिया कि संगम फिल्म का गाना 'ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर कि तुम नाराज मत होना" की धुन उन्होंने तैयार की है। शंकर को यह बात काफी नगवारा गुजरी। उन्होंने जयकिशन के विरोध के बावजूद लताजी के बजाए शारदा को प्लेबैक के लिए लेना शुरू कर दिया। इन सबके बाद दोनों के बीच की दूरियां और बढ़ती गईं। हालांकि रफी साहब ने इसे अपने स्तर पर कम करने की कोशिश की लेकिन वह पूरी तरह सफल नहीं हो सके।
शंकर सिंह रघुवंशी का जन्म 15 अक्टूबर 1922 कोपंजाब में हुआ था। शुरू से उनके मन में संगीतकार बनने का ख्वाब हिलोरे मार रहा था। इसलिए संगीत की तालिम लेने के बाद वेआरंभिक शिक्षा लेने के बाद एक थियेटर कंपनी में संगीत देना शुरू किया। शंकर बहुत बढ़िया तबलची थे। इसलिए उन्हें पृथ्वी थियेटर में नौकरी भी मिल गई। एक दिन उस समय के प्रसिद्ध निर्माता के पास शंकर गए थे जहां पर जयकिशन भी आए थे। जयकिशन की तमन्नाा हीरो बनने की थी। शंकर की सलाह पर जयकिशन ने भी पृथ्वी थियेटर ज्वाइन किया और उन्हें हारमोनियम बजाने का काम मिल गया।
वक्त गुजरता गया और दोनों ने प्रसिद्ध संगीतकार राम गांगुली के सहायक के रूप में काम करने शुरू कर दिया। उसी समय राज कपूर अपनी फिल्म बरसात बना रहे थे। किसी कारण राज कपूर और राम गांगुली में अनबन हो गयी और राजजी ने शंकर जयकिशन को स्वतंत्र रूप से अपनी फिल्म में पहली बार ब्रेक दिया। बरसात फिल्म तो हिट हुई ही साथ ही साथ उसके गानों ने इस नौजवान संगीतकार जोड़ी को रातों-रात स्टार बना दिया।
क्रमश:

फोटो THE HINDU से साभार

Thursday, April 15, 2010

श्मशाद बेगम: आवाज जैसे मंदिर की घंटी


अपनी पुरकशिश आवाज से हिंदी फिल्म संगीत पर छाप छोड़ने वाली श्मशाद बेगम के गीतों में एक अलग मस्ती, रवानगी, और अल्लहड़पन नजर आता है। झरना जैसा अविरल बहता है वैसी ही श्मशाद बेगम की आवाज है। करीब चार दशक तक फिल्मी दुनिया पर राज करने वाली श्मशाद के आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं क्योंकि उनके गाये गीतों के धड़धड़ा रिमिक्स हो रहे हैं।
मैंने हाल ही में किसी हिंदी वेबसाइट पर पढ़ा कि श्मशाद बेगम के बारे में प्रसिद्ध संगीतकार ओपी नैयर ने कहा था 'श्मशाद जी की आवाज ऐसे मंदिर की घंटी की तरह स्पष्ट और सुमधुर है। 14 अप्रैल 1919 को अमृतसर में जन्मी श्मशाद बेगम कुंदनलाल सहगल की बड़ी फैन थीं। और इस चक्कर में उन्होंने देवदास 14 बार देखी। बेगम ने ऑल इंडिया रेडियो के लिए गीत गाए। इसी दौरान प्रसिद्ध सारंगी वादक उस्ताद बक्शवाले साहेब भी उनकी आवाज के कायल हो गये। लाहौर के संगीतकार गुलाम हैदर उनकी आवाज का इस्तेमाल कुछेक फिल्मों में किया। जब गुलाम हैदर अपने ऑरकेस्ट्रा के साथ बंबई (अब मुंबई) आए तो वे श्मशाद को भी साथ ले आए। नौशाद, ओपी नैयर, सी रामचंद्र के स्वरबद्ध किए गीतों ने श्मशादजी को एक मुकाम पर पहुंचा दिया।
श्मशादजी की आवाज उस दौर की सभी गायिकाओं से एकदम अलग थी। उनकी आवाज में वजन था जो किसी महिला गायिका में नहीं था। उस दौर में जहां, लताजी, आशाजी, गीता दत्त और अमीरबाई का जलवा था उसी दौरान में श्मशाद जी ने अलग गायिकी से लोगों का दिल जीत लिया। फिल्म सीआईडी में 'बूझ मेरा क्या नाम रे" जैसा लोकधुन पर आधारित गीत गाने वाली श्मशादजी ने जब सी रामचंद्र के संगीत निर्देशन में 'आने मेरी जान संडे के संडे" जैसा पाश्चात्य किस्म का गीत गाया तो सुनने वाले वाह वाह कह उठे। करीब चार दशक तक अपने गीतों का जादू बिखेरनी वाली श्मशादबेगम ने धीरे-धीरे पार्श्व गायन से विदाई ले ली। लेकिन उनके गाये गीत आज भी काफी लोकप्रिय हैं।

उनके गाये कुछ हिट गीत

1) बूझ मेरा क्या नाम रे नदी....
2) लेके पहला-पहला प्यार...
3) मिलते ही आंखें दिल हुआ
4) कभी आर-पार कभी लागा
5) ओ गाड़ीवाले गाड़ी धीरे हांक
6) होली आई के कन्हाई
7) तेरी महफिल में किस्मत
8) छोड़ बाबुल का घर
9) मेरे पिया गये रंगून

Monday, April 12, 2010

होली के छह महीने बाद वेलेंटाइन डे और वेलेंटाइन के कुछ समय बाद करवाचौथ


जब कोई बड़े बजट की फिल्म बनती है तो बहुत सी चीजों का ध्यान रखा जाता है। लेकिन फिल्म में कोई ना चूक हो ही जाती है। गलती भी ऐसी की होली के छह माह बाद वेलेंटाइन डे और इसके कुछ समय बाद करवाचौथ मना लिया जाता है।
जैसे फिल्म बागबान
अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी, सलमान खान, महिमा चौधरी जैसे बड़े सितारे थे फिल्म में। इसके अलावा सुमन रंगनाथन, अमन वर्मा, समीर सोनी, नासिर खान, लिटिल दुबे भी फिल्म की केंद्रीय भूमिका में थे। बैनर बीआर फिल्मस, डायरेक्टर रवि चोपड़ा। ये वही रवि चोपड़ा हैं जिन्होंने द बर्निंग ट्रेन जैसे महान फिल्म और महाभारत जैसा महान टीवी सीरियल बनाया। लेकिन फिर भी चूक तो हो ही जाती है। कैसे, आइए मैं बताता हूं।

1) फिल्म शुरू होने के कुछ देर बाद अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी अपने परिवार के साथ होली का गीत गाते हैं। खूब मस्ती होती है और सभी जमकर होली खेलते हैं। अमिताभ आईसीआईसीआई बैंक से रिटायर होते हैं। इसके बाद अमिताभ के चारों बच्चे माता-पिता को छह-छह माह अपने पास रखने के लिए तैयार होते हैं और दोनों को उनकी बात माननी पड़ती है। याद रखिएगा बात छह-छह महीने की हो रही है। फिल्म थोड़ी आगे बढ़ती है तो अमिताभ अकेलेपने एक कैफे में बैठकर किताब लिख रहे होते हैं और हेमा मालिनी उनसे दूर है। तभी कैफे के लड़के वेल्टाइन डे मनाते हैं। होली के छह माह बाद तो वेल्टाइन डे नहीं आता है। मेरे पास जो कैलेंडर है उसमें तो बिल्कुल नहीं आता। गड़बड़झाला है कि नहीं।

2) हेमा मालिनी अपनी पोती को वेल्टाइन डे के मौके पर एक क्लब में बदमाश से बचाती है। थोड़ी लेक्चरबाजी होती है, हाईवोल्टेज ड्रामा स्क्रीन पर दिखाई देता है, और अगले ही सीन में हेमा को करवाचौथ मनाते दिखाया गया है।
अब आप ही बताइए कि क्या वेलेन्टाइन डे के छह माह के बीच करवाचौथ आ सकता है क्या? मुझे नहीं लगता। लेकिन बागबान में तो आता है।

3) फिल्म के सीन में समीर सोनी देर रात तक काम करता रहता है। तभी अमिताभ बच्चन उसे मदद की पेशकश करते हैं। लेकिन वह यह कहकर मना कर देता है कि कहां आप की छोटी सी कंपनी और कहां मल्टीनेशनल कंपनी का वर्कलोड। अब ही बताइए आईसीआईसीआई क्या छोटी कंपनी है। चलिए माना वह अपने पिता को नीचा दिखाने की कोशिश करता है लेकिन इसका मतलब यह निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी बैंक इतनी छोटी हो जाए। इस डायलॉग की जगह होना चाहिए था, 'कहां आप की बैंक की नौकरी और कहां मल्टीनेशनल कंपनी का वर्क लोड।"

आगे भी जारी रखेंगे ऐसी श्रंखला को.....।
फोटो साभार: screenindia.com

Monday, March 29, 2010

भिखारियों ने हिट करा दिया गाना

हिंदी फिल्म संगीत में कल्याणजी आनंदजी का नाम बड़े अदब से लिया जाता है। परचून की दुकान से संगीतकार बनने का सफर वाकई हैरान करता है। संगीत की असीम गहराई में उतरने का भी दिलचस्प वाकया है। कच्छ से बम्बई (अब मुंबई) आए कल्याणजी आनंदजी के परिवार को रोजी रोटी चलाने के लिए परचून की दुकान खोलनी पड़ी। उनके पास एक ग्राहक ऐसा आता थो जो सामान तो हमेशा खरीदता था लेकिन रुपये कभी नहीं दे पाता था। सो उन्हें पैसे के लिए बार-बार तगादा करना पड़ता था। एक दिन ग्राहक ने बचे रुपयों के बदले कल्याणजी और आनंदजी को संगीत की शिक्षा देने का ऑफर दे दिया। बस फिर क्या था दोनों की संगीत की प्रारंभिक शिक्षा शुरू हो गयी।
धीरे-धीरे दोनों भाइयों ने अपना ऑरकेस्ट्रा ग्रुप शुरू कर दिया। कामयाबी मिली तो फिल्मी दुनिया की ओर भी कदम बढ़ा दिए। हेमंत कुमार के सहायक के रूप में कल्याणजी ने अपना करियर शुरू किया। और फिल्म नागिन के लिए क्लेवॉयलिन से बीन की धुन निकाली और पूरे हिंदुस्तान में कल्याणीजी वीरजी शाह मशहूर हो गये। 1959 में उन्हें स्वतंत्र रूप से पहली फिल्म मिली सम्राट चंद्रगुप्त। मजे की बात है कि इस फिल्म में उनके छोटे भाई आनंदजी भी साथ हो लिए और बन गई कल्याण जी आनंदजी की जोड़ी।
बात करते हैं सम्राट चंद्रगुप्त की। फिल्म के मुख्य कलाकार थे भारत भूषण, कृष्णा कुमारी, निरूपमा रॉय और बीएम व्यास। निर्देशक थे बाबूभाई मिस्त्री । इस के गीत को लेकर भी एक मजेदार किस्सा मशहूर है। 'चाहे पास हो चाहे दूर हो....." आज भले ये गाना सुपरहिट गीतों में शुमार होता है, लेकिन अगर कल्याणजी अपनी जिद पर नहीं अड़े होते तो शायद यह गाना आप हम नहीं सुन पा रहे होते।
हुआ यूं कि जब कल्याणजी आनंदजी यह गीत लेकर फिल्म के निर्माता सुभाष देसाई के पास गए तो उन्हें न यह गीत पसंद आया और न ही धुन। पहली ही फिल्म में निर्माता के तेवर देखकर दोनों भाई थोड़ा मायूस तो हुए लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। कल्याणजी को तभी एक योजना सूझी, उन्होंने देख कि निर्माता के घर के आस-पास भिखारियों का डेरा रहता है। उन्होंने कुछ भिखारियों को पैसा देकर इस गाने की रिहर्सल करवा दी। भिखारियों ने इस गाने को ट्रेन में, बस में और गलियों में गाकर काफी लोकप्रिय कर दिया। फिर क्या था देसाईजी को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने फिल्म में इस गाने को रखने की इजाजत दे दी। इस तरह कल्याणजी की युक्ति ने इस गाने बचा लिया और भिखारियों ने इसे रिलीजिंग से पहले ही लोकप्रिय बना दिया। वैसे यह गीत भरत व्यास ने लिखा था।

Monday, March 15, 2010

जब लताजी ने फ़ोन पर सुनाया 'रसिक बलमा'


मेलोडी किंग शंकर जयकिशन ने 150 से ज्यादा फिल्मों में संगीत दिया. इनमें से अधिकतर फ़िल्में अपने गीतों और संगीत के बूते चलीं.
राज कपूर, शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन की तिकड़ी ने हिंदी फिल्म सिनेमा में बहुत ही उम्दा काम किया है. 1956 में आये थी फिल्म 'चोरी-चोरी'. यूं तो इस फिल्म के सभी गाने काफी लोकप्रिय हुए थे, लेकिन एक खास गीत की मैं यहाँ चर्चा करूंगा. लताजी का गाया यह गीत लोग आज भी पूरी शिद्दत से सुनते हैं. 'रसिक बलमा, दिल क्यों लगाया, तोसे दिल क्यों लगाया.'
प्रसिद्ध फिल्म निर्माता-निर्देशक महबूब खान को यह गाना बहुत पसंद था. बात उस समय की हैं जब महबूब खान इलाज के लिए लॉस एंजिल्स में थे. बीमारी के दौरान एकाएक उन्हें यह गाना सुनने की इच्छा हुई. पहले तो लॉस एंजिल्स में ही इसका रिकॉर्ड ढूँढा गया लेकिन नहीं मिल सका. थक हार कर खान साहब ने लताजी को फ़ोन घुमाया और फ़ोन पर ही गाना सुनाने की फरमाइश कर दी. मेहबूबजी की बातें सुनकर लताजी सकपका गयीं. लेकिन मेहबूबजी के निवेदन को वें टाल नहीं सकीं. और फोन पर ही सुना दिया रसिक बलमा.
और यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा. जब भी महबूब जी को गाना सुनाने की इच्छा होती वे लताजी को फ़ोन लगा देते और सुनते रसिक बलमा.


(यू टयूब की लिंक यहाँ है. बुफफ़रिंग हो जाने दें और सुने.)

रसिक बलमा.... दिल क्यों लगाया
तोसे दिल क्यों लगाया.
जैसे रो दिल लगाया.
रसिक बलमा..........

जब याद आये तिहारी
सूरत वो प्यारी-प्यारी
नेहा लगाके हारी
तड़प मैं गम की मारी
रसिक बलमा..........

ढूंढें है पागल नैना
पाए न इक पल चैना
दस्ती है उजली रेंना
का से कहूँ मैं बहना
रसिक बलमा..........

Thursday, January 14, 2010

तुमसा नहीं देखा




कल से आगे
5 आंखों से जो उतरी है दिल में (फिल्म :फिर वही दिल लाया हूं, गायिका: आशा भोसले, मजरूह सुल्तानपुरी)
यूं तो इस फिल्म के सभी गाने जबरदस्त हिट रहे। लेकिन इस गाने की बात ही अलग है। इस गाने को सुनने के बाद ऐसा लगता है कि यह गाना सिर्फ और सिर्फ आशाजी के लिए बना है। आशा पारेखजी पर यह गीत फिल्माया गया है, इस लिए परदे पर दोनों की कैमिस्ट्री खूब जमी है। बीच-बीच में संतूर की धुन मन को प्रफुल्लीत कर देती है।
6 पिया-पिया मोरा जिया पुकारे (फिल्म : बाप रे बाप, गायक किशोर कुमार, आशा भोसले, गीतकार: मजरूह सुल्तानपुरी।)
किशोर दा और नैय्यरजी के गाने यूं तो कम ही हैं। लेकिन जितने भी हैं वे कमाल के हैं। उनमें से यह एक है। नैय्यरजी के संगीत में जहां पंजाब की खुशबू आती थी वहीं, गानों में घोड़ों की टाप का इस्तेमाल का श्रेय भी इन्हें जाता है।

7 है दुनिया उसी की ज़माना उसी का (फिल्म : कश्मीर की कली, गायक: मोहम्मद रफी, गीतकार: एसएच बिहारी।)
दर्द भरे गीतों में रफी साहब का जवाब नहीं था और अगर परदे पर शम्मीजी हों तो वही जादू दिखता था जो किशोर कुमार और राजेश खन्ना के गीतों में होता था। इस गाने में नैय्यरजी ने सेक्सोफोन का इस्तेमाल काफी खूबसूरती से किया है।

8 आज कोई प्यार से दिल की बातें (फिल्म: सावन की घटा, आशा भोसले, गीतकार एसएच बिहारी।)
मुमताज पर फिल्माए गए इस गीत के क्या कहने। ढोलक और संतूर का ऐसा मिश्रण हिंदी फिल्मों के कम ही गानों में देखा जाता है।

9 इक तू है पिया जिस पे दिल आ गया (फिल्म: प्राण जाए पर वचन ना जाए, गीतकार: एसएच बिहारी, गायक: आशा भोसले)।
हिंदी फिल्मों में मुजरे तो हर दूसरी या तीसरी फिल्म: में दिख जाते हैं। लेकिन इस मुजरेनुमा गाने की बात ही निराली है। रेखा (शायद पहली फिल्म) पर इसे फिल्माया गया है और सुनील डाकू के रोल में बंदूक लटकाए दिखाई देते हैं।

10 चल अकेला चल अकेला (फिल्म संबंध, गायक: मुकेश, गीतकार: प्रदीपजी)
मुकेशजी और नैय्यरजी ने कम ही साथ काम किया है। देब मुखर्जी पर फिल्माया गया यह गाना वाकई शानदार है उस पर प्रदीपजी की कविता ने जादू ही कर दिया है।

Wednesday, January 13, 2010

नैय्यर द ट्रेंड सेटर

दुबली-पतली काया, काला सूट और उस पर हैट। गोल्डन फ्रेम का चश्मा। हिंदी फिल्मों की एक ऐसी दबंग शिख्सयत ...... जिसने आधी सदी तक लोगों को अपने गीतों पर झूमने के लिए मजबूर कर दिया। मैं बात कर रहा हूं ओमकार प्रसाद नैय्यर की यानि ओपी नैय्यर की। निरंकुश और हमेशा नये प्रयोग करने वाला यह संगीतकार 16 जनवरी 1926 को पाकिस्तान के लाहौर में पैदा हुआ। बंटवारे के बाद ये अपने परिवार के साथ अमृतसर आ बसे। बचपन से ही संगीत के प्रति गहरी रुचि होने के कारण उन्होंने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। बतौर संगीतकार नैय्यरजी की फिल्म `आसमान´ थी। लेकिन इससे पहले उन्हें `कनीज´ फिल्म में बैकग्राउण्ड म्यूजिक का काम मिला। हालांकि इससे पहले भी एचएमवी कंपनी ने उनके संगीत निर्देशन में अल्बम भी निकाला था। यह काफी लोकप्रिय हुआ। बंबई (अब मुंबई) में काफी संघर्ष के बाद उन्हें गुरूदत्त की फिल्म `आर-पार´ मिली जो बम्पर हिट रही। और यहां से नैय्यरजी ने कभी पीछे मुड़ के नहीं देखा।
आज मैं नैय्यरजीउन दस गानों का जिक्र करुंगा जो ऑल टाइम हिट हैं ही साथ ही मुझे बेहद पसंद हैं।
1 ये देश है वीर जवानों का (फिल्म : नया दौर गीतकार: साहिर लुधियानवी, गायक: मोहम्मद रफी, बलबीर)।
दिलीप कुमार और अजीत पर यह गीत फिल्माया गया था। आज भी 15 अगस्त और 26 जनवरी को यह गीत सुनाई देता है। गाने में पंजाब की मिट्टी की खुशबू आती है। भांगड़े की बीट पर रफी साहब की आवाज वाकई नैय्यरजी ने कमाल कर दिया। साहिर साहब की शायरी भी कमाल है।

2 हुजूर-ए-आला जो हो इजाजत ( फिल्म ये रात फिर ना आएगी, गीतकार: अजीज कश्मीरी, गायक: आशा भोसले, मिनो पुरषोत्तम)।यह मुझे अब तक का सर्वश्रेष्ठ क्लब सॉंग लगता है। इसका फिल्मांकन भी गजब है। गिटार की धुन, ढोलक की थाप एक अलग ही सुकून देती है। हेलन ने इस गाने में कमाल का नृत्य किया है। (दूसरी नृत्यांगना को मैं नहीं पहचानता )।

3 देखो कसम से देखो कसम से... (फिल्म : तुमसा नहीं देखा, गीतकार: मजरूह सुल्तानपुरी, गायक: मोहम्मद रफी, आशा भोसले)। यह गाना शम्मी कपूर और अमिता पर फिल्माया गया था। जंगल का सूना रास्ता और शम्मीजी को मनातीं अमिताजी। शब्दों को अगर ध्यान से सुना जाए तो मन में गुदगुदी सी उठती है। गीत के बैकग्राउंड में सारंगी की धुन मदहोश करने वाली है।

4 आंखों में कयामत के बादल (फिल्म: किस्मत, गीतकार: एसएच बिहारी, गायक: महेंद्र कपूर)।इस गीत के बोल जबरदस्त हैं। शरारत और छेड़छाड़ वाले गीतों में नैय्यरजी को महारत हासिल थी। बबीता और बिस्वजीत पर इसे काफी बोल्ड किस्म से िफल्माया गया था। (उस समय के लिए शायद यह बड़ी बात होगी।)
क्रमश: